पंजाब के लोक प्रिय महाराजा रणजीत सिंह एक बार वह खुद के दरबार में बेठे थे। उनके अनुचर ने आकर विनय के साथ कहाँ महाराज प्रणाम ” महाराज एक अंग्रेज व्यापारी खुद की कंपनी में तैयार हुआ माल आपको बताना चाहता है।
महाराजा ने इजाजत दी उसे आने दो। थोड़ी देर मे पुष्ट शरीर वाला अंग्रेज़ व्यापारी वहाँ आया। भारतीय संस्कृति के शिष्टाचार का पालन करके महाराज के सामने विनयपूर्वक हाथ जोड़ कर खड़ा रहा।
राजा ने पूछा बोलो आप किस प्रकार का माल लेकर आये है? व्यापारी ने साथ में लाई पेटी में से काच का सामान निकाल कर महाराज के सामने जमाते हुऐ कहाँ राजा मेरी कंपनी कांच की उत्कृष्ट कारीगरी वाला माल तैयार करती है। वो आपको बताने के लिए लाया हूँ।
मात्र बताने के लिए? राजा ने पूछा
व्यापारी जल्दी से बोला नही जी, आप बड़े राज घराने के राजा हो। आप मेरी कंपनी का माल खरीद कर प्रहोत्सान दोगे। इसी आशा के साथ आपके पास आया हूँ।
राजा बोले अच्छी बात है।
फिर उसके सामने पेश किये गए विविध कांच के सामान के बिच में से चमकती हुई एक फूलदानी उठाई। थोड़ी डेर तक उसको हाथ में युही इधर उधर फेरी, उसे अच्छे से निहारा और फिर अचानक से उसे फेक दिया। घड से उसके टुकड़े हो गए। अंग्रेज़ व्यापारी और सारे के सारे दरबारी विस्मय से राजा की ओर देखने लगे। राजाजी बोले अब इस कीमती फूलदानी का मूल्य कितना है?
व्यापारी ने विचार करके उत्तर दिया की अब तो इस फूलदानी का मूल्य एक कोडी का भी नही है।
फिर राजा ने खुद के अनुचर के पास से एक दवाद (शाही रखने डब्बे) पित्तल का मंगवाया। उसे हतोड़े से तोड़ने की आज्ञा की। तोड़ने के बाद उसे बाजार में बेचकर आ जाओ।
थोड़ी देर में सेवक उस टूटी हुई दवाद को बैंच कर आया। और उसे प्राप्त दो पैसे महाराज के हाथ में दे दिए।
उस अंग्रेज को दो पैसे बताकर बोले देखो साहब हमारे देश में बचत और दिर्घदृष्टी का गुण है। इसलिए हम ऐसी वस्तु बनाते है। जिनके ख़त्म होने के बाद भी कुछ मूल्य आये।