हे आत्मन, तूँ ही परमात्मन
जैन धर्म जाने
धर्म – जो प्राणियों को संसार के दुःख से उठाकर उत्तम सुख (मोक्ष) की ओर ले जाए,
उसे “धर्म” कहते हैं।
और
“मोक्ष” नाम है इस संसार सागर से पार हो जाने का अथवा जन्म-मरण से रहित हो जाने का,
सभी कार्यों से निवृत होकर ‘कृत्कृत्यता’ पा लेने का।
जैन धर्म – वीतराग/सर्वज्ञ/हितोपदेशी भगवान द्वारा प्रणीत धर्म ही केवल सच्चा धर्म है,
जो मोक्ष (उत्तम सुख) का मार्ग बतलाने वाला है।
यही धर्म हैं, अन्य सब मत मात्र हैं।
इस संसार में अनंतानंत जीव हैं, जो कि अनादि काल से तीनों-लोकों में चारों-गतियों में भटक रहे हैं।
इस संसार में कहीं सुख नहीं है, सुख सिर्फ निज की प्राप्ति में है, मोक्ष की प्राप्ति में है।
निज आत्म कि प्राप्ति ही संसार से मुक्ति है, मोक्ष पद कि प्राप्ति है।
कैसे मिलेगा मुझे ये सुख ?
जैन धर्म कहता है कि : “मैं वह हूँ जो हैं भगवान, जो मैं हूँ, वो हैं भगवान।
अंतर यही ऊपरी जान, वे विराग, यहाँ राग वितान! माने, की जैसा मेरा स्वरुप है, वैसा ही भगवान का है, परमार्थ नय से बात कहें तो सब जीव शुद्ध हैं।
परमार्थ दृष्टि से मैं खुद ही भगवान हूँ, किन्तु अनादिकाल से इस संसार में भटकते हुए मैंने अपने सच्चे स्वरुप को कभी देखा ही नहीं, पाया ही नहीं।
कोई भी धर्म इस संसार से मुक्ति नहीं दिला सकता, मोक्ष नहीं दिला सकता।
केवल जिन-धर्म और जिन-वाणी का सच्चा श्रद्धान और
अनुसरण ही इस मुक्ति रानी से मिला सकता है।
यही जैन-धर्म है।
विशेष बात यह भी है कि हम अपने धर्म में किसी व्यक्ति-विशेष को नहीं पूजते, अपितु उसके गुणों कि स्तुति-पूजा करते हैं, क्योंकि वही गुण मुझमे भी हैं, बस प्रकट नहीं हो सके हैं।
– जैन धर्म कर्म-प्रधान है।
किसी व्यक्ति-विशेष की नहीं अपितु यहाँ गुणों की पूजा होती है।
याद रखें :-
पंच-परमेष्ठी भगवान, जिन मन्दिरजी, जिन प्रतिमाजी, जिन धर्म और जिनवाणी अलावा कोई भी “पूज्य” नहीं “पूजनीय” नहीं।
जिनागम में सिर्फ जो “निर्ग्रन्थ” हैं और “दिगम्बरत्व” को धारण किये हुए हैं, ऐसे आचार्य-उपाध्याय-साधु को ही “गुरु” कहा है, अन्य किसी को नहीं।
साधु और गुरु का स्वरुप जैसा जिनागम में कहा है वैसा ही मानना चाहिए।
आज के समय में भोगों-विलासों-उमंगों-आशाओं-आकांक्षाओं-इच्छाओं और उत्तेजनाओं कि ही प्रभुता हुए जा रही है, और प्रभु का इनसे कोई सम्बन्ध नहीं, कदापि नहीं।
यह जीवन इन्द्रियों को संतुष्ट करने में ही निकल जाएगा, और संतुष्टि कभी होगी नही।
हम अत्यंत भाग्यवान हैं।
हमे मानिए भाग्य लक्ष्मी मिल गयी है, जो ये जैन-कुल में मनुष्य जन्म मिला है।
इसका एक-एक समय बेहद अमूल्य है, बहुमूल्य है।
आइये, किसी महान पुण्य कर्म के उदय से प्राप्त हुए जैन-धर्म में मनुष्य जन्म को सार्थक बनाने का प्रयास शुरू करें।
थोड़ा समय धर्म के लिए अवश्य निकालें धर्म ही साथ जायेगा बाकी,
इस धरा का
इस धरा पर
सब धरा का धरा रह जायेगा।