भेद
सच देखा जाय तो वह सात भाइयों का संयुक्त परिवार अनेक पीढ़ियों से एकत्र था । उनमें पर्याप्त रूप से एकता थी, परंतु जैसे-जैसे आधुनिकता अवतरित होती गयी, वैसे-वैसे मनभेद बढ़ता गया और परिणामतः किसी प्रसंग के निमित्त से समूचा परिवार बिखर गया, विभक्त हो गया । अशांति बढ़ गयी, मोह बढ़ गया । भोगी मन हमेशा असंतुष्ट रहता है ।
ये सभी संस्कार एकेंद्रिय के द्वारा आ गए हैं । सप्तपर्णी के पेड़ पर सात पत्ते एक गुच्छ के रूप में एक साथ आनंदपूर्वक रहते थे । तब वे विशिष्ट औषधि के रूप में प्रयुक्त होते थे, परंतु वही पेड़ जब वायुकायिक से हिलने लगा तब सप्तपर्णी के पत्ते टूटकर झड़ने लगे । वायु के कारण पेड़ उन्मूलित होने लगा । शायद वही सात भाइयों का परिवार रहा होगा ।
पेड़ को अपनी टहनियाँ, पत्ते, फूल, फल आदि का बोझ नहीं महसूस होता, उनसे प्रेम ही होता है, क्योंकि उसका अपना रस उन पाँचों अंगों में होता है । नारियल के पेड़ को नारियलों का बोझ नहीं होता। बहुत अधिक पानी से युक्त बड़े-बड़े नारियल धारण करने की स्पर्धा उस पेड़ ने अन्य पेड़ो के साथ की होती है । अतः मोह के कारण उसे उनका बोझ नहीं अनुभव होता, परंतु दूसरे पेड़ का फूल, पत्ते, लताएँ, टहनियाँ आदि गिर पड़े तो बोझ महसूस होते हैं, क्योंकि वह उन सभी परकियों को अपने रसरूप नहीं बना लेता अर्थात् अपने में समा नहीं लेता ।
मोह के इन संस्कारों का जो भरपूर पोषण हुआ है, उसीका पूरा-पूरा फल भोगता है । प्रत्येक गति में भेद के ये संस्कार लेता हुआ जाता है । नरक में वैर के कारण भेद हो जाता है । तिर्यंचों में मायाचारी से भेद होता है, मतलब शरीर से नग्न होता है और सभी विभाव प्रकट हो जाते हैं । स्वर्ग में लोभ से भेद हो जाता है अर्थात् मानसिक व्यथा हो जाती है । एकेंद्रिय के संस्कार मनुष्य गति में प्रकृष्टता के साथ दिखाई पड़ते हैं । वहाँ केवल परिवार में ही भेद करता है ऐसा नहीं तो व्यक्ति-व्यक्ति में भी भेद करता जाता है। अकेला रह जाता है ।
कागज़ का एकाध टुकड़ा भी अपने घर के सामने आ गया तो भी झगड़ने लगता है । किसीका कुछ भी सहन नहीं करता । मोह से होनेवाले भेद की अपेक्षा वैराग्य के कारण होनेवाले भेद से अशरीरी भगवान बन जाता है । इसके लिए सर्वश्रेष्ठ साधन भेदविज्ञान है । जब तक अपने ही द्रव्य में गुणभेद करता है, तब तक निर्विकल्प समाधि की प्राप्ति नहीं हो सकती । अखंड चैतन्य की प्रतीति अभेदरूप है । उसे साध्य करने के लिए परमाणुमात्र भी राग का भेद करके निर्भेदस्वरूप की ओर मुड़ा जाया जा सकता है । इस प्रकार के सहजानंद स्वरुप को जान लें तो मोह के कारण उत्पन्न होनेवाले सभी भेद समाप्त हो जाते हैं । तिर्यंच गति में और मनुष्य गति में भेद है । जाति की भिन्नता जानकर सामान्यतः परस्पर संबंध नहीं रखता ।
उसी तरह सभी विभावों को परजातीय समझकर उन्हें भी ज्ञेय किया गया तो संसार बढ़ेगा नहीं । अभेदस्वरूप जान लें तो सभी भेद विगलित हो जाते हैं । प्रत्येक द्रव्य अभेदस्वरूप एवं अखंडस्वरूप है ।
भेदविज्ञान आत्मा में,
बोध ही धाम मोक्ष का ।
मोह से भेद हो जाये,
होय कारण संसृति का ।