पहले देवलोक के इंद्र का एक नाम सोधमेंद्र है तथा दूसरा नाम शक्रेद्र है। बत्तीस लाख देवविमनो का तथा अबजो देवदेवीओ के स्वामी का पिछला जन्म कुछ ऐसा है।
इसी भरतक्षेत्र में प्रथविभूषण नामक नगर था । वहा कार्तिक नाम से श्रेष्ठि रहता था । बिसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुवर्तस्वामी की देशना सूनकर उसने प्रतिबोध पाया । प्रभु के पास सम्यक्त्व सहित श्रावक के 12 व्रत स्वीकारे , उसके बाद श्रावक की पांचवी प्रतिमा की उसने एक सौ बार आराधना की ।
इस नगर में गैरिक नामक मिथ्यादृष्टि तपस्वी कभी आ पंहुचा । वह मासक्षमण के पारणे मासक्षमण तप करता । पूरा नगर इस तपस्वी का भक्त बन गया । एक कार्तिकसेठ सम्यक्त्व पालन में दृढ थे इसलिए वे गैरिक तपस्वी के पास गए ही नही ।
गैरिक के मन में इस कार्तिक के लिए द्वेष की ग्रन्थि उत्पन्न हुई । किसी तरह से भी वह कार्तिकसेठ का मानखंडन करने का अवसर ढूंढने लगा। एक बार नगर के राजा ने इस तपस्वी को पारणे का निमंत्रण दिया । उस समय उसने शर्त रखी की , यदी कार्तिक सेठ मुझे भोजन परोसे तो तुम्हारा आमंत्रण स्वीकारने की मेरी तयारी है । राजा ने शर्त मंजूर कर दी । राजभवन में जाकर कार्तिक सेठ को आज्ञा भेजी की गैरिक तपस्वी को पारणा करवाने के लिए तुम्हे मेरे घ्र पर आना है । कार्तिक सेठ दृढ़ सम्यक द्रष्टि था । मिथ्यात्वी तपस्वी के लिए उसे अंश मात्र भी द्वेष नही था परंतु अधर्म को धर्म के रूप में समझने की उस तपस्वी की लायकात के साथ सेठ को जो विरोध था , उसके कारण वह तपस्वी के पास नही जाते थे । सम्यग्दृष्टि जीवो के मिथ्यातवियो से दूर रहने के प्रयास के पीछे सर्वत्र यही रहस्य छुपा हुआ है की अधर्म को धर्म तरिके की प्रतिष्ठा नही मिलने चाहिए । द्वेषबुद्धि को यह कोई स्थान नही है ।
कार्तिक , गैरिक तपस्वी की माया को समझ सकता है तथा इसी कारण उसे गहरा आघात लगा । खुद की निष्ठां के साथ समाधान करना उसे बहुत दुखद लगा मगर राजा की आज्ञा के सामने वह लाचार था । पारणा कराने के लिए वह राजमहल में पहुचा । वह तपस्वी को परोस रहा है तब गैरिक तपस्वी बार बार खुद की ऊँगली नाक पर रखकर कार्तिक की हँसी उदा रहा है कि मैने तेरा नाक काटा । कार्तिक को इस अपमान के कारण बहुत ठेस पहुची ।
पारणा करवाकर वह वापिस लौटा । उसने सोचा : मैंने दीक्षा नही ली इसलिए ऐसी शर्मजनक परिस्थिति से गुजरना पड़ा । अब दीक्षा ही ग्रहण कर लूं जिससे भविष्य में शर्मिन्दगी ही नही महसूस ( पैदा ) हो ।
एक हजार तथा आठ श्रेष्टि पुत्रो के साथ उसने श्री मुनिसुव्रत स्वामी के पास दीक्षा ली । द्वादशांगी का अभ्यास किया । अन्त में अनशन करके कालधर्म पाकर सौधमेंद्र रूप में उत्पन्न हुआ ।
– आधार : कल्पसूत्र – व्रत्ति तथा भगवती सूत्र – व्रत्ति ।
नोट : भगवतिसूत्र – व्रत्ति में गैरिक तपस्वी के विषय की घटनाओं का उल्लेख नही है । इसके अतिरिक्त घटनाओ का दोनों सूत्रों की व्रत्ति में सामान र्प से वर्णन किया गया है ।