धर्म की कला यदि नहीं सीखे तो फिर इन सभी कलाओ का करना क्या? क्या महत्त्व इनका? धर्म के बिना तो सारी कलाए अधुरी है। सुरसुन्दरी की यह बात को सुनकर माता धनवती ने कहा- बेटी बिल्कुल सही बात है तेरी धर्म का बोध तो होना ही चाहिए। यह तो संसार है। संसार में सुख और दुःख तो आते जाते रहते है। दरिये के जवार भाटे की भांति उसमे यदि धर्म का बोध हो अध्यात्म की कुछ जानकारी हो तो हर एक परिस्थिति में आदमी संतुलित रह सकता है। समभाव बनाये रख सकता है। रहदेवश और मोह की तीव्रता साधनता से बच सकता है। आर्तध्यान और रोद्र ध्यान से अपने आपको अलग रख सकता है। बेटी धर्म का समुचित ज्ञान प्राप्त करना ही चाहिए।
सुरसुन्दरी को धनवती की बाते अत्यन्त अच्छी लगी। सुरसुन्दरी बेटी अपने नगर में ऐसी साध्वीजी है, उनका नाम है साध्वी सुव्रता। राजमहल से बिलकुल निकट ही उनका उपाश्रय है। बहुत शांत प्रशांत और उदार आत्मा वाले है। उनके दर्शन करते ही तु मुग्ध हो उठेगी। देखना कही दीक्षा मत लेलेना। अमरकुमार का स्वर प्रबलता हंसी से भरा था फिर भी उसमे कंपन था। वह खड़ा हो कर कमरे के बहार चल दिया। सुरसुन्दरी के चेहरे पर हंसी उभरी धनवती तो हँस पड़ी। तुम लोग पाठशाला में तो नोक झोक करते ही रहते हो यहाँ घर पर तू पहली बार आयी तो भी यह अमर चुप नहीं रहता। सुन्दरी तेरा निर्णय सुनकर मुझे तो बहुत प्रसन्ता हुई है। मै तो चाहती हूँ अमर भी कुछ धर्म का अध्ययन करे में आज ही उसके पिता से बात करुँगी यदि कोई ऐसे गुरुदेव मिल जाय तो अमर कोभी अध्ययन करवाना चालू कर दे ।हा माताजी आप जरूर बात करना उसे मुझसे भी ज्यादा जरुरत हे धर्म बोध की सुरसुन्दरी बड़े ही मासुम अंदाज में जान बुझ कर उचे स्वर में बोली।
माता धनवती से विदा ले सुरसुन्दरी अपने महल की ओर चली।।
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