मम्मी! ओ मम्मी ! बापुजी कहाँ गए? दो दिन से क्यों दिख नहीं रहे? बोलो ना मम्मी ! तू मौन क्यों है? क्यों मेरे साथ बोल नहीं रही?” छोटी सी राजकन्या निर्दोषभाव से पिता को मिलने की तीव्र इच्छा से माता को पूछ रही थी!
वह थी भविष्य में विश्वपति बननेवाले वर्धमान कुमार की प्रिय लाडली प्रियदर्शना! हा सचमुच ही वह प्रियदर्शना ही थी! उसके मुख पर राजतेज ज़लक रहा था! देवाधिदेव परमात्मा महावीर देवकी सुपुत्री , इस लिए उसके रूप के विषय में तो पूछना भी क्या? परंतु उसमें संसारियो को अच्छी लगनेवाली कामुकता कहाँ भी नहीं थी! जो उसे देखता उसे उसपर वात्सल्य उभर आता! इसलिए ही उसका प्रियदर्शना नाम एकदम सार्थक था!
हमेशा हसती खेलती रहती वह राजकन्या ही माता यशोदा का बरसो से सहारा था! लग्न की प्रथम रात्रि को ही यशोदा वर्धमान के समक्ष संकल्प कर चुकी थी की,” मैं आपके मार्ग में कभी भी कंटक स्वरूप नहीं बनुगी” इस घटना के पाश्चत महीने , बरसो बिताते गये! यशोदा देखती थी की स्वामी उसके साथ बांते करते थे , परंतु उनका मन तो दूसरे ही जगह पर रहता ! वर्धमान की खाने पीने चलने की प्रत्येक क्रिया यशोदा को अलौकिक यंत्रवत होती हुई लगती! उन क्रियाओमें चैतन्यका धबकरा दिखाई नहीं देता था! उसने भी मन में ही निश्चय कर लिया था कि ‘वर्धमान जो करे, वो करने देना! उन्हें कहां भी कोई भी सुचना नहीं करनी!’
प्रियदर्शना का जन्म हुआ , तभी सारा राजकुल आनंदकी तरंगो में चडा हुआ था! शय्या पर सोई हुई यशोदा ने ताजी ही जन्मी प्रियदर्शना पर हाथ प्रसारते प्रसारते , उसी ही अवसर पर वर्धमान के मुख की और दृष्टि की थी, तभी उसे झटका लगा था! वर्धमान के मुख पर हर्ष की कोई रेखा दिखने को न मिली! मात्र गंभीर मुखमुद्रा, संसार के प्रति अजब – गजबकी निर्लेपता ही वहाँ नजर आयी! यशोदा समझ गई की यह लड़की सिर्फ उसकी ही थी, उसके पिता की नहीं ! और सचमुच यशोदा ने दोनों की जवाबदारी उठा ली!