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आचार्य श्री की आत्मकथा – भाग 9

मैं प्रतिदिन उन्हें जो समय अनुकूल रहता… उस समय ही उनकी अनुज्ञा प्राप्त कर के जाता था । ज्यों ज्यों उन महात्माओं का परिचय बढ़ता गया त्यों त्यों मेरा प्रेम बढ़ता चला। उन के प्रति मेरी आस्थापूर्ण श्रद्धा सुद्रढ़ होती चली । मैंने महसूस किया कि जैसे मेरे बहुत सारे पाप धुल रहे हों । वे सभी उपशान्त आत्माएं थी…

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आचार्य श्री की आत्मकथा – भाग 8

‘कुमार , इस पश्चिम महाविदेह क्षेत्र में इन दिनों तीर्थंकर भगवंत साक्षात् विचरण करते जरुर हैं , पर बहुत दूर – सूदूर के प्रदेशों में उनका विचरण है। हमने उनके दर्शन किये हुए हैं ।’ ‘क्या प्रभो ? आपने उनके दर्शन किये हुए हैं ? आपने अपनी आंखों से देखा है परमात्मा को ?’ ‘हां, कुमार! हमने समवसरण में बैठकर…

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आचार्य श्री की आत्मकथा – भाग 7

‘राग नहीं, द्वेष नहीं… वीतराग होते हैं ….। त्रिकालज्ञानी होते हैं । लोकालोक के तमाम द्रव्यों के, सर्व पर्यायों के ज्ञाता एवं द्रष्टा होते हैं । वे धर्मतीर्थ की स्थापना करनेवाले होने से उन्हें ‘तीर्थंकर’ भी कहा जाता है । तीर्थंकरों के बारह विशिष्ट गुण होते हैं। वे जिस समवसरण में बैठकर धर्म का उपदेश देते हैं…उस समवसरण की रचना…

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आचार्य श्री की आत्मकथा – भाग 6

विभावसु की मुत्यु के पश्चात कई दिनों के बाद मेरे परिवार ने मुझे प्रसन्न मुख-मुद्रा में देखा। सभी को आनंद हुआ। सभी के दिल शांत हो गये। मैंने मेरे माता – पिता से कहा : पर्वत की गुफा में चार महान तपस्वी मुनिवर पधारे हैं। उनके दर्शन कर के सचमुच, मे मैं धन्य बन गया । उनकी वाणी सुनकर हर्षविभोर…

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आचार्य श्री की आत्मकथा – भाग 5

‘मुनिवर , आप सब कुशल तो है ना ?’ मैंने कुशलपुच्छा की । ‘परमात्मा की और सद्गुरु की कृपा से हम कुशल हैं।’ ज्येष्ठ मुनिवर ने प्रत्युत्तर दिया । ‘वर्षाकाल में क्या आप यहीं स्थिरता करेंगे ?’ दो – चार दिन में ही बारिश शुरु होनेबक चिहन नजर आ रहे थे, इसलिए मैंने यह प्रश्न पूछा । ‘हां महानुभाव, वर्षाकाल…

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