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दृष्टि स्वरूप

देहद्रष्टया तु दासोहं , जीवद्रष्टया त्वदंशक:।

आत्मद्रष्टया त्वमेवाहं , इति में निश्चिता मति:।।

अर्थ:- देह दृष्टि से देखें तो मै दास हूँ ,जीव दृष्टि से देखें तो मैं आत्मा हूँ ,और आत्म दृष्टि से देखें तो मैं परमात्मा हूँ ,ऐसी मेरी द्रढ़ मति जिस प्रकार चश्मे का रंग बदलने से सामने दिखाई दे रहे दृश्य का रंग बदलता है , उसी प्रकार मन भी विश्च को देखने के लिए चश्मे जैसा है।

ज्ञानी जिस दृष्टि से दुनिया को देखता है उस दृष्टि से देखता है ,उस दृष्टि से देखने से अज्ञानी के चश्मे का उपयोग हुआ, ऐसा कहलाएगा

विश्च के अधिकांश मनुष्य स्वयं को देह की दृष्टि से देखते हैं ।इसलिए न तो आत्म गौरवशालिता प्राप्त करते है और न तो अन्य जीवों को आत्मीय रूप में स्वीकार करते हैं।

दृष्टि में देह की स्थापना करने से आत्मा बिना की देह जैसा निर्बल जीवन जीना पड़ता है। जो दासत्व का सूचक है। जीवदृष्टि से देखने पर जीवन कुछ अंश में गरिमावंत बनता है, साथ ही उतने प्रमाण का गोरव जीवो के लिए धारण करता है।

जब मन के चश्मे का स्थान आत्मा लेती है तब अपूर्व सन्नाटा समग्र मनप्रदेश में पैदा होता है, जिससे परमात्म भाव की अनुभूति होती है।

आप अपने आपको किन आँखों से देखते हैं?

चक्षु इन्द्रिय की बात नही हैं, यहा तो बात है मन की आँखों की! इन आँखों की पुतली की। पुतली के स्थान पर आत्मा को स्थापित करने से जीवन की सर्वोत्तम स्थापना का शुभारंभ होता है। पूर्ण दृष्टिवाली आत्मा को स्व और पर की पूर्णता का दर्शन होता है । जीवन सदा हरा- भरा लगता है, उसी प्रकार आत्मदृष्टिवाले जिव को समग्र जीवलोक एक ही कुटुंब जैसा महसुस होता है। इस कारण से किसी भी जिव का तिरस्कार करने स्वरूप पाप वह नही कर सकता, वह उत्तम निष्पाप जीवन के चरम शिखर का अधिकारी बनता है। इसलिए यह दृष्टि खुल जाए इस हेतु जिनेश्वर प्रभु के दर्शन करने की खास जरूरत है।

जो लोग पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को मानते हैं उनके विश्व के समस्त जीवों के साथ सभी प्रकार के सम्बन्ध अनेक बार हो चुके है, ऐसा स्वीकार करना ही पड़ेगा। इससे समग्र विश्व अपना कुटुंब है ऐसा स्वीकार करना पडेगा। फिर माता- पिता और सभी संबंध सभी जीवों के साथ अनन्त बार होने पर भी उन्ही जीवो के साथ स्नेह के बदले वैरभाव क्यों है? ऐसा प्रश्न होता है।

उसका उत्तर है कि उस स्नेह के बीच देह आता है और जहाँ देह है वहाँ देह का स्वार्थ रहा हुआ है। यह स्वार्थ ही वैर- विरोध का मूल है। जिन्हें इस वैरभाव से मुक्त होना है उन्हें देह होते हुए विदेह भावना से भावित होना पड़ेगा। विदेह की भावना यानि देह रहित रहने की भावना।

देह रहित बनने की भावना में से ही तप ,संयम इत्यादि शुभ क्रियाओं का अनुराग होगा। हिंसादि पापस्थानको से विराम लेने की प्रतिज्ञा अंगीकार करने की भावना जागेगी।

समस्त धर्मस्थानों की उत्पत्ति देह रहित होने की भावना में रही हुई है। इसलिए वह धर्म का बीज है। विदेही बने जीवो की पूजा का प्रणिधान भी उससे प्रगट होता है और अंत में यह प्रणिधान विदेह अवस्था अर्थात मोक्ष प्राप्त करवाता है।

आयुष्य पूर्ण होते ही देह छूट जाता है परंतु देहभाव छूटता नही है। इसी देह की आसक्ति में से पुनः पुनः जन्म- मरण होते रहते हैं। इस देहासक्ति को क्षीण कर सर्वथा नाश करने के लिए जो देह से मुक्त हुए हैं उन्हें उन भगवंतो की भक्ति अनिवार्य है। जिसकी कभी मृत्यु ही होने वाली नहीं है, ऐसी सिद्ध आत्माओं की शरणागति अनिवार्य है।

देह में आत्मबुद्धि की प्रबलता को हटाने के लिए सम्यग् दृष्टि अपनानी चाहिए, आत्मदृष्टिवंत बनना चाहिए और देहधर्मों को सिर्फ साक्षी भाव से देखना चाहिए।

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