ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष:
ज्ञान बिना की क्रिया या क्रिया बिना का ज्ञान अपने पूर्ण फल को देने में समर्थ नहीं बनते। यह दोनों जब तक अकेले होते हैं, तब तक यह मोक्षसाधन नहीं बन सकते। मोक्ष की प्राप्ति ज्ञान और क्रिया दोनों के सुमेल से होती है। मोक्ष की प्राप्ति में ज्ञान के साथ क्रिया की आवश्यकता ही पुण्य की आवश्यकता को सिद्ध करती है।
क्रिया बिना का ज्ञान और ज्ञान बिना की क्रिया निष्फल है। इसका अर्थ यह है कि व्यवहार की प्रवृत्ति बिना निश्चय और निश्चय के लक्ष्य बिना व्यवहार प्रवृत्ति निष्फल है। क्रिया मुख्य रूप में व्यवहार स्वरूप है इसीलिए वह मोक्षप्राप्ति का एक आवश्यक अंग है। किसी भी क्रिया में मुख्य रूप से काया और गौण रूप से मन-वचन का प्रयोग होता है। मन, वचन, काया के व्यापार बिना कोई भी क्रिया नहीं हो सकती। पुण्य के नौ प्रकारों में शुभ, मन, वचन और काया इन तीनों का समावेश होता है। यानी यह तीनों योग स्वयं पुण्य स्वरूप है और पुण्य के हेतु भी है। इसीलिए प्रभुपूजा, पच्चक्खाण, सामायिक आदि सभी शुभ क्रियाएं पुण्य स्वरूप होने से परम आदरणीय है। पुण्यबंधक शुभ क्रियाओं की उपेक्षा करने से मोक्ष की ही उपेक्षा करने से मोक्ष की ही होती है। अर्थात भवभ्रमण की परंपरा का सर्जन होता है, अतः मोक्षा अभिलाषी आत्मा को पुण्य कार्य में या शुभ क्रिया में थोड़ा भी प्रमाद का सेवन नहीं करना चाहिए।