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कर्म के प्रकार

कर्म दो प्रकार के हैं, अच्छी सामग्री का संयोग जिससे मिलता है, उसका नाम पुण्य कर्म! बुरी सामग्री का संयोग जिससे मिलता है उसका नाम पापकर्म!

सत्कार्य को करने वाली आत्मा पूर्ण रूप बीज को बोती है जिसके फलस्वरूप भावी में सुंदर फल पाती है जबकि कुकार्य करनेवाली आत्मा पापरूप बीज बोती है जिसके द्वारा भावी में विपरीत फल पाती है।

आत्मद्रव्य के लिए दूसरा ऐसा भी नियम है कि जैसा कार्य करते हैं वैसा फल कालांतर में या उसी समय पाते हैं।

अनीति, चोरी आदि पापकर्म करनेवाला ह्रदय में तत्काल अशांति पाता है, जबकि न्याय संपन्न, सदाचारी पुरुष निरंतर ह्रदय में स्वस्थता का अनुभव करता है।

इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि इस जन्म में या अन्य जन्म में सुखी बनने की इच्छावालों को कुकार्य का सर्वथा त्याग करना चाहिए और जितनी अधिक हो सके उतना सत्कार्यमय जीवन जीने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। ऐसा प्रयास करने पर ही कर्म का कार्य-कारणभाव का त्रिकालअबाधित नियम स्वयं ने समझा, ऐसा कह सकते हैं।

उत्तम फल का बीज उत्तम चाहिए, अधम नहीं चलेगा। कुकर्म का फल कालांतर में भी अच्छा नहीं आता। कर्म के इस अबाधित नियम का भंग करनेवाला जीवन में दु:खी बनता है। इस नियम के पालन में ही जीवन की बाह्य-अभ्यंतर शांति और उन्नति है।

कर्म फल
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पुण्य की परम आवश्यकता
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