भगवान अनंत प्रेम से भरे हुए हैं, इस बात का स्वीकार यथार्थ रूप से होते ही भगवान के प्रति अनंत प्रेम उभरता है।
दुनिया में ‘प्रेम’ नाम के जितने भी तत्व हैं, उन सभी में भगवान का स्थान सर्वोच्च है।
भगवान के प्रेम जैसा प्रेम धारण करने की शक्ति भगवान के अलावा अन्य किसी में नहीं आ सकती।
यह समझ आते ही भगवान पर अनन्य प्रीति-भक्ति जागृत होती है।
इस प्रीति-भक्ति का प्रारंभ तो होता है, किंतु अंत नहीं होता।
सादी अनंत स्थितिवाली प्रीति प्रभु के साथ ही हो सकती है, दूसरों के साथ नहीं, ऐसा शास्त्रीय नियम अनन्य प्रीति भक्ति के अनुभव के बाद ही यथार्थ लगता है।
दर्शन मोहनीय कर्म के क्षय से अनंत प्रेम और चरित्र मोहिनीय कर्म के क्षय से अनंत स्थिरता प्राप्त होती है।
सिद्ध परमात्मा संसारी जीवो को आत्मतुल्य और आत्मपूर्ण दृष्टि से देखते हैं। माता अपने बालक को और बालक अपनी माता को पूर्णता की नजर से देखते हैं। इससे परस्पर अखंड प्रीति बनी रहती है।
सती स्त्री अपने पति को परमेश्वर की दृष्टि से देखती है, इससे उसकी पतिभक्ति अखंड बनी रहती है। सिद्ध भगवंतों की पूर्ण दृष्टि, साधक को अपना पूर्ण स्वरूप प्रकट करने में परम उपकारक है, यह बोध सिद्ध परमात्मा पर अनंत भक्ति भाव को उल्लसित करता है।
‘आत्म सम दर्शन’ यही ‘प्रेम’ शब्द का पर्यायवाची शब्द है।
राग में लेने की वृत्ति है और प्रेम में देने की वृत्ति है।
आत्मदान का अर्थ यह है कि अपने के लिए जितना भी कर सके, उतना ही पर के लिए करना। आत्मा के लिए जो कुछ हो उसका बदला जिस प्रकार नहीं मांगते, उसी प्रकार पर के लिए जो कुछ भी हो उसका बदला नहीं मांगना चाहिए। तभी सच्चा प्रेम और सच्ची स्थिरता स्वाधीन बनती है और आत्मसुख का अनुभव होता है।