मनुष्य में सब के प्रति प्रेम का जन्म तब होता है जब स्वयं उसके भीतर आनंद का जन्म होता है। मुख्य प्रश्न आत्म अनुभूति का है। भीतर में आनंद होतो आत्म अनुभूति से प्रेम उत्पन्न होता है।
जो अपने आत्यंतिक अस्तित्व से अपरिचित हैं, वह कभी आनंद को नहीं पा सकता। ‘स्वरूप में’ प्रतिष्ठा वही आनंद है। इस कारण अपने आप को जानना यह नैतिक और शुभ होने का मार्ग है।
स्वयं को जानने से ही आनंद का संगीत गूंजने लगता है, उसके बाद जिसके दर्शन स्वयं के भीतर होते हैं, उसके ही दर्शन समस्त जीवो में होने लगते हैं।
स्वयं को ही सब में जानकर प्रेम का जन्म होता है। प्रेम से बड़ी कोई पवित्रता नहीं है और प्राप्ति नहीं है, जो इसको प्राप्त करता है वह जीवन को प्राप्त कर लेता है।
प्रेम यह राग नहीं, राग में तो प्रेम का अभाव है। वह घृणा से विपरीत वस्तु है। राग और घृणा की जोड़ी है। राग किसी भी समय घृणा में परिवर्तित हो सकता है, प्रेम नहीं। प्रेम घृणा और राग से भिन्न चीज है। वह उपेक्षा भी नहीं है। उपेक्षा मात्र अभाव है। प्रेम एक अत्यंत अभिनव शक्ति का सद्वास है। वह शक्ति स्वयं में से सब के प्रति बहती है। सभी से आकर्षित होकर नहीं किंतु स्वयं में से प्रकट होकर बहती है।
प्रेम संबंध में सीमित हो तो वह राग है। वह असंबद्ध हो तो अहिंसा है।
असंबद्ध, असंग, स्वयंस्फुरित इन सभी के एक ही अर्थ है।
पतन करे वह प्रेम नहीं, वह राग, तिवारे वह प्रेम! आत्मा आत्मा को पहचाने, बुलावे, अपना-अपनाकर मिल जाए, यह प्रेम की प्रक्रिया है। प्रेम की परिधि लोकव्यापी है। जब तक किसी एक भी जीव के प्रति द्वेष ह्रदय में हो, तब तक प्रेम पूर्णत: नहीं आया। क्योंकि प्रेम में द्वेष का स्थान नहीं है, इसीलिए प्रभुप्रेम सर्वश्रेष्ठ गिना जाता है। वही साध्य है, वही तारक है।
वितराग परमात्मा विश्ववात्सल्य युक्त है। उनकी भक्ति द्वारा हम भी सच्चे प्रेम के पात्र बन सकते हैं।