स्व का अध्ययन करने के बाद शास्त्रों का अध्ययन करना चाहिए। स्व को पहचाने बिना शास्त्रों का ज्ञान अहंकार को पुष्ट करता है एवं मन की तृष्णा को बढ़ाता है। स्व में यानी आत्मा में सत्य विद्यमान है। स्व में स्थिर होने वाले को नित्य योग है । जब स्व में नाम रूप नहीं रहते तब शुद्ध चैतन्य मात्र बाकी रहता है । अहंकार युक्त में का ज्ञान जीव है यानी अहंकार से युक्त आत्मा ही संसारी जीव है और अहंकार मुक्त आत्मा ही परमात्मा है । शिव (परमात्मा) शक्ति के योग के लिए जो स्व नहीं है उससे तादात्म्य तोड़ना पड़ेगा । स्व की स्मृति में सत्य वह परमात्मा का योग है । चिंतन द्वारा उसका अनुभव होता है जो नित्य निरंतर होता है । जो स्वयं से भिन्न है , जो नित्य प्राप्त नहीं होता, जो चिंतन मात्र से नहीं मिलता उसके सन्योग के लिए कर्म करना पड़ता है । स्व की अनुभूति के लिए कर्म नहीं परंतु चिंतन आवश्यक है । स्व का स्फुरण निरंतर एक ज्योति की तरह हो रहा है । ऐसे स्व के साक्षात्कार के आधार पर ही स्वाध्याय कहलाता है । स्वाध्याय स्वभाव की परिणिति के लिए है । विभाव दूर करने के लिए है । शरीर का अध्ययन वह स्वाध्याय नहीं है । आत्मा के शुद्ध में रमणता वह स्वाध्याय है । आत्मा का अध्यन जिसमें वह वही सच्चा चिंतन है । दूसरे जीवो को अभय देने से स्वयं को अभय मिलता है । अभयदान दूसरों को देना और निर्भयता स्वयं को मिले यही तो अभयदान का असाधारण स्वरूप है । इसलिए उसका महत्व भी असाधारण है ।
आत्मसत्ता के ज्ञान का यह प्रथम फल है। दूसरा फल स्वयं जीना और दूसरों को जीवन देना । जिसके लिए आहार जल वस्त्र आवास औषधादि का दान और ग्रहण किया जाता है । आत्म सत्स्वरूपी है , उसी प्रकार ज्ञान स्वरूपी भी है और वह सुषुप्ति मूर्छा या समाधी को भी प्रकाशित करती है जिस समय व्रतियों और इंद्रियों का उपसंहार होता है । विविध विज्ञान और निर्विशेष , निराकार शुद्ध स्वरूप का भी ज्ञान करना करवाना आवश्यक है । सामान्य विशेष और समन्वय इन तीनो प्रकार के ज्ञान की व्रद्धि करनी चाहिए ।
भिन्न भिन्न विषयों का ज्ञान करने के लिए जिस प्रकार साधना की जरूरत पड़ती है उसी प्रकार निर्विषय तत्वीक ज्ञान और उसके साधनभूत तत्वज्ञानी , वीतराग महात्मा पुरुषों की और उनके स्थानों की भी आवश्यकता पड़ती है ।
शरीर के भीतर तत्व का ज्ञान वह अध्यात्म है ।
ब्रम्हांड की संचालन प्रक्रिया का ज्ञान वह आधी दैविक ज्ञान । भौतिक वस्तुओं का ज्ञान वह अधिभौतिक ज्ञान ।
सभी से विलक्षण अद्वितीय आत्मा का ज्ञान वह परमार्थ ज्ञान है।
आत्मा आनन्द स्वरूप है । स्वयं की जात पर यानि सभी आत्माओ पर अनवरत प्रेम उसका लक्षण है ।
दुख का द्वेष और सुख का राग सर्वसाधारण है । दुःख विजातीय है क्योंकि वह पैरों में फंसे हुए कांटे या आँख में लगे तिनके की तरह हमेशा चुभता है । इसलिए किसी को दुख देना नहीं । स्वयं दुःख को स्वीकार करना और दूसरों को सुखी रखना , यह दूसरा धर्म है । ज्ञान, ध्यान, भगत्वप्रेम , धर्म आचरण, गीत नृत्य , वंजित्र , त्याग वगैरह सुख के अनेक साधन है ।सुखी यही आत्म धर्म है । उसके लिए जो सद्उपाय मिलते हैं । वह सब ग्राह्रा और स्वीकार्य है ।
आत्मा अद्वय है । इसलिए भेदभाव करना या करवाना अधर्म है । सभी में एक को और एक में सभी को देखना वह धर्म है । यानी सभी जीवो में आत्मतुल्यता और एक आत्मा में सभी के समान आत्मस्वरूप देखना यह धर्म भेद है । अभेद भावना से भय , अरती , शोक, अभिमान , राग , द्वेषदि ,व्रतिया विलीन हो जाती है । ऐसी विचारणा महा मूल्यवान नहीं परंतु अनमोल है । उसमें आत्मा का अमर गान है । आत्मा के गुणों का अपूर्व ध्यान है ।