भव-सागर से तिरने का पुरुषार्थ
किसी भी नमकीन या खाली जमीन में अगर वर्षा-जल गिरता है, तो वह किसी काम नहीं आता है । वैसे ही जब तक सद्गु गुरु के उपदेश की बात आत्मा में परिणमित न हो, ऐसी स्थिति में वह देशना भी किस काम की ? जब तक उपदेश की बात आत्मा में परिणमित न हो, तब तक वह बारम्बार सुनना, विचारना, उसका पीछा नहीं छोड़ना चाहिए ।
अब तुमको निज आत्म-हित में कायर नहीं होना है ।
कायर होगा, तो आत्मा ऊपर नहीं आयगा ।
ज्ञान का अभ्यास जैसे भी हो बढ़ाना ।
अभ्यास करते रहना ।
उसमें कुटिलता या अहंकार नहीं रखना ।
दृष्टि दोष हट जाने के पश्चात कोई भी शास्त्र, कोई भी वचन, कोई भी स्थल प्रायः अहित का कारण नहीं होता है । बुद्धिबल से निर्णीत किया हुआ सिद्धांत उससे भी ज्यादा बुद्धि या विशेष बुद्धिबल अथवा तर्क से कदाचित बदल सकता है, परन्तु जो वस्तु अनुभव-गम्य हुई है, वह त्रिकाल में भी नहीं बदल सकती है ।
हम समझ गये है, हम शांत है, ऐसा कहते है वे तो ठगा गये है । असाता के उदय में ज्ञान की कसौटी हेाती है । परिणामों की धारा वह थरमामीटर के समान है, जो दृढ़ निश्चय करे कि चाहे जो करूँ, विषमान करूँ, पर्वतसे गिरूँ, कुएँ में कूदूँ परन्तु जिसमें कल्याण हो, वही करूँगा / करुँगी, उसका ज्ञातृत्व सच्चा है ।
वही भव्य जीव इस भव-सागर से तिरने का पुरुषार्थ कर सकता है।