जीवन कैसा हो ?
हमारा जीवन कैसा हो ?
संसार के परिभ्रमन का प्रमुख कारण है, “प” “फ” ” ब” “भ” “म”…..
” प” यानी पाप, संसार में कदम-कदम पर जाने अन्जाने में पाप होते रहते है ।
“फ” यानी फांसी, फांसी का मतलब है सजा, संसार में पाप की सजा भुगतनी ही पड़ती है ।
” ब ” यानी बंधन, संसार में अनेक संबंधों की जेल मे अनंत समय निकालना पड़ता है ।
” भ ” यानी भ्रमण, संसार में चारगति और चौरासी लाख योनीयों में निरंतर भटकना पड़ता है ।
” म ” यानी मरण, संसार मे जीवन अ-शाश्वत है, मरण की तलवार सदैव लटकी रहती है ।
क्या ऐसे भयानक संसार से पार उतरने की हम कब सोचेगें ?
प्रभु कृपा
हे प्रभु ! तेरी असीम कृपा के योग से मैने तुझे प्राप्त किया है, मै जो कुछ पुजा, भक्ति कर रहा हूं उसमें तेरा ही हाथ और साथ है । प्रभु आलंबन से ही बल मिलता है । जो कुछ भी सत्यं, शिवं, सुन्दरं वह सब परमात्म शक्ति से ही प्राप्त होता है ।
धार्मिक शिक्षा
जैसे आहार शरीर की खुराक है, इसी तरह धार्मिक शिक्षा आत्मा की खुराक है । हम बच्चों में चेतना से चैतन्यवंत बनाना चाहते है तो बच्चों में आध्यात्मिक संस्कार से उनके जीवन को प्रकाशित करे ।
संत कहते है, आज मानव कहां जा रहा है ? धर्म के बजाय धन का, संत के बजाय संपत्ति का, विराग के बजाय विलास का, योग के बजाय भोग के साथ रोग का सन्मान कर रहा है । यहीं पतन का कारण है, इसे रोकना होगा ।
शुद्ध बनो, संपूर्ण बनो
संत कहते है, शुद्ध होने से हम संपूर्ण बनते है । अतः दुःख भी महान उपकारी तत्व है । पाप शुद्धिकारक और आत्मविशुद्धिकरण की महान प्रक्रिया है । दुःख सहन करने मे प्रसन्नता है तो कर्मनिर्जरा, कर्मक्षय का कारण है और अप्रसन्नता है तो कर्मबंध है ।
जीवन का जोड़, तोड़
जोड़ करना हो तो निस्वार्थ स्नेह सेवा करना । तोड़ करना हो तो पापाचरण या किसी गल्ती या भूल की करना । गुणाकार करना है तो परोपकार, सहकार्य, सेवा से करना । भागाकार करना है तो वैर, द्वेष, कटुता से भाग करकरना ।
स्वदोष दर्शन
परदोष दर्शन नही स्वदोष दर्शन करना चाहिये । सरल भाव से स्विकारना चाहिये, मैं कितना पापी हूं, पंचेद्रिय की लालसा मे मैने कितना पाप कमाया है । हे प्रभु मेरा अब क्या होगा ? मै पश्चाताप करता हूं । दूसरों के छोटे गुण की भी प्रशंसा करनी चाहिये ।
प्रभु से प्रार्थना
प्रतिदीन प्रभु से प्रार्थना करना कि “हे परमात्मा” इस छोटीसी जिंदगी में किसी भी व्यक्ति के प्रति मेरे मन में क्रोध के कडवे बीज का वपन ना हो इतना प्रेम तु मुझे देना । हे प्रभु ! क्रोध तो बबूल के कांटे ही कांटे है, अतः मुझे क्षमा का कल्पतरू चाहिये । जहां क्रोधाग्नि हो वहां मै पानी बन जाऊं । जहां जहर हो वहां वात्सल़्य का अमृत बरसाऊं। जहां आवेग हो वहां प्रेम बरसाऊं। जहां आक्रमण हो वहां मै प्रतिक्रमण करने बैठ जाऊं।
हे परमेश्वर ! मै तेरी अमृतरस भरी प्रतिमा को निहारता रहूं और मुझे ऐसी अनुभूति होती रहे कि तेरी प्रतिमा के शांत परमाणु मुझपर बरस रहे है। यह अनुभूति अंत तक बनी रहे, यही मेरी तुम चरणों मे प्रार्थना है।
परमात्मा का ध्यान
हे आत्मन् ! रूपये पैसे का जाप बहुत किया अब प्रभु का जाप कर ।
संसारीक रिश्ते पुत्रादि का बहुत ध्यान किया अब परब्रम्ह का ध्यान धर ।
व्यापार मे बहुत मन लगाया अब ज्ञान ध्यान में मन लगा ।
पुत्र परिवार की बहुत चिंता की अब तो आत्मा की चिंता कर ।
परमात्मा का ध्यान ही संसार से पार कराने में सक्षम साधन है । परमात्मा की अनुरक्ति ही परम शांति को देनेवाली है ।