भगवान श्री महावीर स्वामी के दर्शन में प्रत्येक जीवात्मा द्रव्य से अनादि है ,शुद्ध निरंजन। जो कुछ अशुद्धता है वह पर्यायगत है यानी पर्याय में रही हुई है और वह औपाधिक है – उपाधि कृत है ,मूलभूत नहीं है।
निश्चय दृष्टि से निगोद से लेकर सिद्धतक के सभी जीव शुद्ध है, एकरसमय है, निर्विकल्प और निर्भेद है। ‘सव्वे सुद्धा हु सुध्दनया’ सर्व जीव शुद्ध नय से शुद्ध है। इस तरह निश्चय नय किसी भी प्रकार से भेदभाव बिना विश्वचैतन्य का अखंड परब्रह्मा स्वरूप से दर्शन करता है। नर मात्र में नारायण को देखता है। प्राणी मात्र में परमात्मा का दर्शन करता है ।
भगवान श्री महावीर स्वामी का प्रत्येक अनुयायी इस तरह की भावना करता है। यह मात्र कल्पनिक नहीं है, किंतु सत्यभावना है । इसे आत्म भावना भी कहते हैं।
‘उचित व्यवहार अवलंबने, ऐम करी स्थिर परिणाम रे’
भावीए शुद्ध नय भावना, पावनाशय तणु ठाम रे,
चेतन ज्ञान अजूवालीए
देह मन वचन पुग्दल थकी,
कर्मथी भिन्न तुज रूप रे,
अक्षय अकलंक छे जीवनुं , ज्ञान आनंद स्वरूप रे
चेतनज्ञान अजूवालिए।
मैं एक अखंड ज्ञायक- चित्, चमत्कारिक चैतन्य- मूर्ति हूं ,पर आश्रय से रहित एकमात्र निर्द्वद्व, स्वावलंबी, ज्ञान स्वभावी अनादि अनंत आत्मा हूं । मेरी आत्मा ही मेरे लिए ध्रुव है, आधार है, आलंबन है, शरण है। मैं ही मेरा हूं। ब्राह्म दृष्टि से विविध निमित्तो के कारण नानात्व- विविधरूप -अनेक रुप है,
वह भी औपचारिक है। अंतदृर्ष्टि से आत्मा एक, अभेद, ज्ञायक, शुद्ध और असंग है।