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आत्मा की एकता

धर्म जगनाथनो धर्म शुची गाइए, आपणो आत्मा तेहवो भावीए।’

इस पंक्ति में तुल्यता बताई है।

‘जारिस सिद्ध सहावों तारीस होई सव्व जीवाणं’।(सिद्ध प्रार्भतिका)

‘जीवो जीवत्वावस्थ: सिद्ध इति-‘(तत्वार्थ वृति)

‘जाति जसु एकता तेह पलटे नही शुद्ध गुण पज्जवा वस्तु सत्तामयी’

इन पंक्तियों में प्रभु के साथ एकता का भाव बतलाया गया है। जीव द्रव्य का स्वभाव है कि अनादि से कर्माधीन होने के बाद भी वह जाति का त्याग कभी नहीं करता है । इसके लिए ‘एगे आया’ इस पाठ की साक्षी दी गई है। सिद्धता यह जीव की अपनी अवस्था है। अस्तित्वादि सामान्य धर्म सदा निरावरण होते हैं । विशेष स्वभाव आवृत होते हुए भी सामान्य स्वभाव सदा निर्मल ही रहता है और वह किसी भी जीव में भीन्न नहीं है, इसलिए सामान्य स्वभाव की अपेक्षा जीव सत्ता से शुद्ध है । इस चिंतन से ध्यान में निश्चलता आती है और अंतर्यामी प्रभु का तात्विक मिलन होता है। एकता के स्वरूप भाव को प्रवचन अंजन रूप से श्री जिनेश्वर की ज्योति रूप से वर्णित किया है। एकता भावन रूप प्रवचन अंजन के प्रभाव से परमनिधान स्वरूप परमात्मा का ह्रदयनयन यानी आंतरचक्षु द्वारा दर्शन होता है।

परमनिधान रूप परमात्मा आत्ममंदिर में प्रत्यक्ष विराजमान होते हुए जगदीश के साथ एकता रूप ज्योति के बिना ‘देखा नहीं जा सकता’ इस तरह अनेक स्थानों में अनुभवगम्य वचनों द्वारा महापुरुषों ने’एगेआया ‘का रहस्य खोज निकाला है ।

एकता, तन्मयता, मग्नता, समाधि, समता, चरित्र, अनुभवदशा आदि शब्द कथंचित् एकार्थवाची है।

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