श्री अरिहंत के सेवक एक कुटुंबी है।
निगोद, ऐकेंद्रीय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रीय, चउरिन्द्रीय, पंचेन्द्रीय, नारकी, तिर्यंच, मनुष्य, देव सभी एक ही कुटुंब के हैं।
सभी एक ही घड़े के चावल, एक ही वस्त्र के धागे, एक ही शरीर के अवयव, एक ही यंत्र के चक्र, एक ही पुष्प की पंखुड़ी, एक ही संगीत के सुर, एक ही प्रकाश की किरण, एक ही सागर के बिंदु, एक ही सूत्र के तंतु, एक ही नाव के मुसाफिर, एक ही वृक्ष के पुष्प और एक ही डाल के पंछी है।
वृत्ति में मैत्री आती है तो वह प्रव्रत्ति में बाहर आती है। संकल्प में एक कार्य का प्रारंभ हुआ, यानी व्यवहार में वह बाहर आता है। यह सिद्धांत है।
जीव शाश्वत है, जड़ नाशवन्त है। समस्त ज्ञान के सार रूप भगवान की त्रिपदी कहती है कि नाशवंत वस्तु को छोड़ो और शाश्वत वस्तु को पकड़ो।
बुद्धिमान मनुष्य शाश्वत को ही पकड़ता है और नाशवंत को छोड़ देता है।
जीव मात्र के साथ मैत्री और जड़ तत्व के प्रति वैराग्य यह मोक्ष का मार्ग है।
पुद्गल पर का प्रेम टूटे नहीं और जीव पर मैत्री जगे नहीं तब तक धर्म की शुरुआत ही नहीं होती।
यानी एक कुटुंब के कुटुंबीजनों के साथ सच्चा स्नेह संबंध स्थापित करने के लिए जीवमैत्री अनिवार्य है।
जीव के प्रति द्वेषभाव और पुद्गल के प्रति रागभव के अस्तित्व में सम्यक्त्व कैसे प्रकट होता है? आत्मा के लिए सोने-बैठने का स्थान समभाव सामान और दूसरा कोई नहीं है। समदृष्टि, समताभाव, वीतरागभाव एकार्थक है।
जीव को भूले तो भव में डूबे और मिथ्यात्व में मरे,
जीव को पहचाने तो भव से तिरे और सम्यक्त्व को स्पर्श करें,
उनका जीवन निहाल हो जाए, बेड़ा पार हो जाए।