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आत्मबुद्धि

संसारी जीव कर्म रूप अग्नि से सदा जलता रहता है । उस अग्नि को शांत करने के लिए चारों तरफ भटकता रहता है, फिर भी अग्नि शांत नहीं होती परंतु बढ़ती रहती है।

परंतु देह में रही आत्मबुद्धि को त्याग कर आत्मा में आत्मबुद्धि हो जाए तब यह आग शांत होगी।

आत्मा रूपी जल कर्मरूपी ईंधन का शमन करने की ताकत धारण करता है। उसके सिवाय अन्य साधन तो कर्मरूप अग्नि को अधिक प्रज्वलित करते हैं। यह ज्ञान जब जीव को होता है तब तप- जप , ज्ञान- ध्यान आदि सभी उपायो से उसकी देहात्मबुद्धि घटती जाती है और कर्मरूप अग्नि का शमन होता है । जब देहबुद्धि का संपूर्ण नाश होता है तब आत्मा रूप जल सीधा ही कर्म की आग को समूल शांत करता है। देहबुद्धि कर्मअग्नि को प्रज्वलित करती है और आत्मबुद्धि उस अग्नि को शांत करती है ।

देहबुद्धि की वृद्धि करने वाले सभी कार्य छूट जाए और आत्मबुद्धि को प्रकट करने वाले सभी कार्यों के साथ जीव जुड़ जाए तो ही जीवो को तीनों तापो से मुक्ति मिल सकेगी।

अर्थ और काम की वासना कर्मरूप आग को बढ़ाती है, धर्म और मोक्ष की भावना आग को शांत करती है । इसलिए मन- वचन काया के व्यापार व्यापार से धर्म एवं मोक्ष को पुरुषार्थमय बनाने हेतु महापुरुषों ने पूरा भार दिया है । इस बार को वहन करने से कर्मों का दहन होता है और जीव संसार के समस्त भारो से मुक्त बनकर अशरीरी बनता है।

ज्ञान आत्मा का लक्षण है। जब तक वह क्रोधादि कषायों से दूषित रहता है तब तक अहिंसादी के पालन रूप व्यवहार चरित्र भी नहीं हो सकता । जब ज्ञान आत्मा के स्वरूप में ही विलीन हो जाता है, आत्माकार में परिणमित हो जाता है तब हिंसादि पाप के स्थान भाग जाते हैं ।

ज्ञान जब विषय के आकार में परिणमित होता है, तब हिंसादि अव्रत, क्रोधादि कषाय आकर खड़े हो जाते हैं। इससे निश्चित हो जाता है कि विषयाकार में रहे हुए ज्ञान का विषयाकार परिणमन होना ही अधर्म का मूल है और ज्ञान का आत्माकार परिणमन ही धर्म का मूल है।

रत्नत्रय स्वरूप आत्मा का ध्यान जब योगी पुरुष करते हैं तब समस्त कर्मों का नाश होता है और आत्मा मुक्त स्वरूप से प्रकाशित होती है । जीव जब आत्मा से विमुख होकर पर द्रव्यों में राग करता है तब ज्ञानादि रत्नत्रय स्थिर नही रहते।

आत्मा से अभिन्न रूप से , एकमेक रूप से ज्ञानादि में प्रवृति करने के लिए योगी महात्मा निरंतर प्रयत्नशील रहते हैं। आत्मा आत्मा द्वारा , आत्मा में प्रवृत्ति करे वह चारित्र , आत्मा आत्मा द्वारा , आत्मा को जाने वह ज्ञान, और आत्मा आत्मा द्वारा आत्मा को देखे वह दर्शन है।

मोक्षार्थी जीवो को आत्मा का ज्ञान पूरी श्रद्धा पूर्वक ग्रहण कर उसे आचरण में लाना चाहिए। वह मोक्ष का सरल और अनन्य मार्ग है । इंद्रियों को अपने-अपने विषयों से रोककर, चित्त को विकल्प बिना का निर्विचार बनाकर, स्वरूप स्थिरता का अभ्यास करने वाली आत्मा को तात्विक स्वरूप यानी आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्रत्यक्ष होता है। जो आत्मा परद्रव्यों का चिंतन करती है , वे परद्रव्यों में तन्मय होती है, जो शुद्ध आत्मा में तन्मय होते हैं वे उसी को प्राप्त करते हैं।

आत्मद्रव्य के अचिंत्य सामर्थ्य, परम ऎश्वर्य एवं अनंत ज्ञान वगैरह गुणों का चिंतन जब तक नहीं होता तब तक ही क्षणभंगुर ऐसे परद्रव्य का चिंतन मीठा- मधुर लगता है। इसलिए आत्मदृष्टिपूर्वक रस लेना चाहिए, आत्मा को रसपूर्वक अनुभव करने का सरल उपाय यही है।

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