तत्वज्ञान, साधक को परमात्मा के दर्शन का अधिकारी बनाता है। सांसारिक तमाम ज्ञान देह, मन और क्वचित्त हृदय को तृप्ति देते हैं, परंतु उनसे आत्मा को तृप्ति नहीं मिलती। अनंत और नित्य ऐसे आत्मज्ञान से ही वह परितृप्ति होती है।
मनुष्य के समग्र व्यक्तित्व में देह,मन,ह्रदय और आत्मा समाविष्ट है। आत्मतृप्ति का साधन आत्मा का साक्षात् दर्शन है।
संसार में जो जीव आत्मकामी होते हैं , आत्मा के रहस्य मय ज्ञान के लिए जो तरसते हैं , वे आत्मज्ञानी के चरणों में मस्तक झुकाते हैं । समता भाव पूर्वक आत्मज्ञान की साधना करते ऋषि मुनियों के चरणों में संसार की भौतिक समृद्धियो के सम्राट के मस्तक भी झुक जाते हैं । इसी से सिद्ध हो जाता है कि सच्ची परितृप्ति बाह्य संपत्ति से नहीं परंतु आत्मा के अनंत ज्ञान , दर्शन आदि आत्मिक गुणों की संपत्ति से होती है । याथार्थ आत्मदर्शन से होती है । आत्मा के यथार्थ स्वरूप के ज्ञान से होती है । उसके पश्चात में आत्मा हूं यह बोलने की बात , या वानी नहीं रहती परंतु साक्षात प्रत्यक्ष रूप में अनुभव सिद्ध बन जाती है । उसके अनुभव का आनंद अनुभव अनुभवी ही कर सकते हैं ।
मनुष्य जन्म पाने के बाद हम सभी का प्रधान कर्तव्य आत्मा को पहचानने रूप आत्मज्ञान और आत्म दर्शन का होना चाहिए ।
जिसे अपनी आत्मा की प्रतीति नहीं है , उसे आत्मा के अक्षय आव्याबाध आनंद का भान कहां से होगा ?
दया भाव और वैराग्य भाव दोनों साथ में रहते हैं । आत्मा की दया में से ही वैराग्य और अहिंसा धर्म प्रकट होता है । जीवो के 14 प्रकार है । एकेंद्रीय जीव् के प्रत्येक और साधारण । विकलेन्द्रिय के तीन प्रकार और पंचेंद्रिय के संज्ञी – असंज्ञी दो प्रकार , इस प्रकार कुल 7 पर्याप्त और अपर्याप्त मिलकर 14 प्रकार होते हैं ।
जब तक आत्मा का भान नहीं होता तब तक जीवो के प्रति दया और विषयों के प्रति वैराग्य किस प्रकार होगा ? विषयों का सेवन जीवो की हिंसा बीना शक्य नही है । इसलिए जैसे जैसे दयाभाव वृद्धिगत बने वैसे वैसे विषयों के प्रति वैराग्य भाव वर्द्धिगत बनता है ।
दयामय वैराग्य धर्म जिव को भवभ्रमण के चक्रों में से छुड़ाता है । धर्म अनुष्ठान मात्र जीव दया और विषय वैराग्य से संलग्न बने हो है , ऐसा धर्म महान पुण्य के योग से मिलता है ।
जीव मात्र को सबसे अधिक सुख और प्रेम अपने प्राणों की रक्षा में रहता है । इसलिए दूसरे जिव को सुख देने से स्वयं की आत्मा को सुख मिलता है । जिन्होंने एक जीव कि , उन्हें विश्व के सर्व जीवो की रक्षा की । जिन्होंने एक जीव का हनन किया है , उन्होंने सर्व जीवों का हनन किया है ।यह मन के परिणाम की बात है ।
तात्पर्य यही है कि प्रतिति अत्यंत जरूरी है , उसके बिना आत्मरति और विषयों विरक्ति नहीं हो सकती ।