सभी जीवो को आत्मातुल्य देखने से स्वार्थवृत्ति निर्बल बनती है और नि:स्वार्थ वृत्ति प्रबल बनती है।
सिद्ध भगवंत सभी जीवो को तुल्य दृष्टि से और पूर्ण दृष्टि से साक्षात देखते हैं। किसी भी जीव को परिपूर्ण देखना, यह जीवो पर के अनंत प्रेम को सूचित करता है। माता अपने बालक को जिस तरह पूर्ण दृष्टि से देख सकती है, उसी तरह दूसरे नहीं देख सकते। इसीलिए माता का प्रेम जिस प्रकार सब प्रेम से अधिक है, उसी प्रकार सिद्ध भगवंतो को संसार के समस्त जीवों पर अनंत प्रेम है।
अर्थात संसारावस्था में रहे हुए जीव चाहे कितने ही दोषों से भरे हो, फिर भी उनका सिद्ध स्वरूप सिद्ध परमात्मा के ज्ञान में है। इसीलिए उनका प्रेम पूर्ण ही रहता है।
अचरमावर्त रूप भव के बाल्यकाल में सिद्ध परमात्माओं के प्रेम को नहीं पहचान सकते। परंतु चरमावर्त काल में प्रवेश होते ही भव की यौवनावस्था आती है और विवेक रूप चक्षु प्राप्त होती है जिससे शीघ्रता से भगवान की महिमा ख्याल में आती है। भगवान अनंत प्रेम से युक्त है, यह शास्त्रसत्य समझते ही भगवान के प्रति प्रेम स्फुरायमान होता है।
दुनिया में प्रेम नाम को धारण करने वाले जितने भी तत्व हैं, उन सब में भगवान का स्थान सर्वोच्च है।
भगवान के प्रेम जैसा प्रेम धारण करने की शक्ति किसी में नहीं है। ऐसी समझ आते ही भगवान पर अत्यंत प्रीति-भक्ति पैदा होती है। इस प्रीति-भक्ति की शुरुआत होती है, लेकिन अंत नहीं होता। सादी अनंत स्थितिवाली प्रीति प्रभु के साथ ही हो सकती है, दूसरों के साथ नहीं, ऐसा शास्त्रीय नियम बाद में यथार्थ रूप से स्वीकृत होता है।