मानव जाति सभी जातियों से प्रधान जाती है । क्योंकि यह सबसे अधिक बुद्धिमान प्राणियों के समुदाय से बनी जाति है , मानव जाति यानी बुद्धिशाली प्राणियों का समुदाय!
मानव समुदाय में भी काल क्रम से , काल भेद से , बुद्धि के तारतम्य से अनेक प्रकार के भेद हो जाते हैं , फिर भी हर काल में दूसरे प्राणियों की बुद्धि से मानव जाति की बुद्धि अधिक ही रहेगी , इसमें कोई संशय नहीं है । मानव समुदाय यह बुद्धिशाली वर्ग है , इसका अर्थ यह है कि बुद्धि मनुष्य का तत्व है । जिस प्रकार शरीर का सत्व शुक्र है और शरीर की शोभा मुख है , उसी प्रकार मनुष्य को मनुष्य रूप में दिखानेवाली और शोभा देखने वाली एकमात्र बुद्धि है ।
बुद्धि यह आंतरिक वस्तु है , उसका कारण यह बाहा इंद्रियों से ना दिखती हो उस , वस्तु का अस्तित्व है ही नहीं ऐसा निश्चय नहीं किया जा सकता ।
आकाश वगैरह या परमाणु आदि पदार्थ बाह्य इंद्रियों से अगोचर होते हुए भी उनकी सत्ता प्रत्येक जीव को स्वीकार करनी ही पड़ती है । उसी तरह बुद्धि , ज्ञान आदी आंतरिक वस्तु इन्द्रिय प्रत्यक्ष न होती हो , फिर स्व स्वेदन प्रत्यक्ष से प्रत्येक को उसकी सत्ता का अस्तित्व स्वीकार किए बिना नहीं चल सकता ।
जो बहिरिन्द्रिय गोचर प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा अनुभव होते बाह्य पदार्थो की सत्ता स्वीकार करने के लिए तैयार है , वे यदि पदार्थों का अनुभव करने वाले ज्ञान की ही सत्ता अस्तित्व को स्वीकार करने हेतु तैयार न हो तो उनका यह वर्तन पुत्र को स्वीकार करने के बाद , माता को नहीं स्वीकार करने जैसा हास्यास्पद बन जाएगा । इसलिए यदि बाह्य पदार्थों की सत्ता निश्चित होती है , तो उनका निश्चय करने वाले ज्ञानदि आंतरिक पदार्थों की सत्ता स्वीकार है बिना नहीं चल सकता ।
बहोन्द्रिय से अगोचर बुद्धि भी स्व स्वेदन गोचर होने से अपने अपने अस्तित्व को साबित करती है और बुद्धि ही यदि मानव समुदाय का सर्वस्व है , तो उसे नष्ट होते हुए या विपरीत मार्ग पर जाते हुए बचाने का फर्ज हमारे लिए महत्व का बन जाता है।
बुद्धि को नष्ट होने होते या विपरीत मार्ग पर जाने से बचा लेने की बात जिसने महत्व की है उतनी ही उसे विकसित करने की भी फ़र्ज़ बनती है । इस फर्ज के पालन से मानव समाज की सेवा हो सकती है और पालन नहीं करने से सेवा के बदले कुसेवा होती है ।
बुद्धि को नष्ट होते हुए रोकना और सुविकसित करना यही मानव समाज की सेवा का परम लक्ष्य होना चाहिए । इस लक्ष्य को स्थिर किए बिना सेवा हेतु जितने भी प्रयत्न किए जाएंगे या तो वह निष्फल बनेंगे या फिर कुछ सेवा में परिणित होंगे ।
सेवा का प्रयत्न निष्फल हो या कुसेवा में न परिणमित हो उस हेतु मानव समुदाय की बुद्धि को नुकसान करने वाले तत्वों का ज्ञान सर्वप्रथम प्राप्त करना चाहिए , यह अपने आप निश्चित हो जाता है ।
बुद्धि यह आत्मा का गुण है । आत्मा के सभी गुणों में यह प्रधान गुण है । जगत की अन्य प्रधान एवं श्रेष्ठ वस्तुओं के लिए जो घटित होता है उसी प्रकार आत्मा के प्रधान गुण को हानि पहुंचाने वाले तत्व इस जगत में अस्तित्व धारण करते हैं , उन सभी तत्वों में प्रधान हानिकारक तत्व कोई है तो वह विपरीत श्रद्धा है ।
वस्तु जिस तरह अमूल्य है उसी तरह उसकी रक्षा करना भी कठिन है । अमूल्य वस्तु को लूटते हुए अटकाने में यदि पूरी सावधानी न रखी जाए तो वह वस्तु सुरक्षित रहने मुश्किल है । ज्ञान और बुद्धि जैसे अमूल्य आत्म वस्तु को लूटते हुए अटकाने में भी आत्मा का अत्यंत सावधान बनने की आवश्यकता है ।
विपरीत श्रद्धा आत्मा के ज्ञान गुण की नाशक है और सम्यक श्रद्धा आत्मा के ज्ञान गुण को विकसित बनाने वाली है , यह…