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शुद्ध दृष्टि

दृष्टि में शुद्ध निश्चय का प्रकाश धारण कर स्वयं के स्वत्व को व्यक्तित्व को पूर्णता के बोध से भावित कर जो व्यवहार किया जाता है वही शुद्ध व्यवहार है। कहा भी है कि

निश्चय दृष्टि ह्रदय धरीजी, पाले जे व्यवहार ।
पूण्यवंत ते पामशे जी भव समुद्रनो पार ।।

यह दृष्टि पराश्रयी भिक्षुक वृत्ति का एक और मूलोच्छेदन करती है तो दूसरी और दूसरों के प्रति सहिष्णु , उदार और समबुद्धिवंत बनाती है । दूसरे जिवो के व्यक्तित्व को जब केवल व्यवहार के पक्ष से ही देखा जाता है तब उच्चता- निम्नता का वैविध्य दिखता है ।शुभाशुभ विकल्पों का मायाजाल फैलता है ,परस्पर धृणा और वैरभाव प्रकट होता है।

शुद्ध नय का अध्यात्म दर्शन यह सर्वव्याप्त विषमतामुलक विषप्रवाह का अमोघ औषध है।

अपनी आत्मा जब जीवमात्र में उक्त प्रकार के द्वंदो से मुक्त भीतर में रही हुई चेतना का दर्शन करती है तब सर्वत्र एकरस, शुद्ध,निरंजन, निर्विकार ऐसे मूल परब्रह्माभाव का साक्षात्कार होता है ।वहां एकता ,एकरूपता और समता ही बसी हुई है। विभिन्नता, घृणा,वैर और द्वंद का सर्वथा अभाव है ।जो कोई भेद है ,वैषम्य है , वह सभी औपचारिक -औपाधिक है ।आत्मा के मूल में उनका थोड़ासा भी अस्तित्व नहीं है ।

जो उपचार है वह आरोपित है और जो आरोपित है वह शुद्ध सार्वभौम ज्ञानचेतना के परिणाम से दूर हो सकता है ।हम जब विषमता को मौलिक मानने से इंकार कर देते हैं तब वह विषमता स्वयं ही नष्ट हो जाती है।

इस तरह भगवान श्री महावीर स्वामी का अध्यात्म दर्शन प्रत्येक व्यक्ति की नेश्चयिक शुद्धता और स्वतंत्रता का प्रतिपादन करता है। उसके फलस्वरुप समस्त चैतन्य जगत मैं एकरसता और समत्व की स्थापना होती है।

अध्यात्म दर्शन
November 21, 2018
आत्मदर्शन
November 21, 2018

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