अशुद्ध में से शुद्ध की ओर जाने के लिए शुभ भाव यानी की पुण्य का आश्रय लेना जरूरी है। शुभ भाव के आलंबन बिना आत्मा का अशुद्ध उपयोग दूर नहीं होता एवं शुद्ध उपयोग की प्राप्ति नहीं होती। राग-द्वेष और मोह के अधीन बनी आत्माओं का उपयोग अनादिकाल से अशुद्ध बना है। उसे शुद्ध बनाने के लिए मन-वचन-काया की शुभ प्रवृत्ति अनिवार्य है। शुभ योग से ही अशुभ उपयोग का परिहार और शुद्ध उपयोग का आविष्कार होता है।
9 पुण्य में परहितकारी प्रवृत्ति में प्रवृत्त शुभ-मन-वचन और काया को पुण्य स्वरूप ही कहा गया है। पुण्य स्वरूप यानी जो पवित्र करें वह पुण्य है। तीनों योग की शुभ प्रव्रत्ति से ही आत्मा का उपयोग शुद्ध बनता है। इस कारण कायादी योग और उन्हें शुभ बनाने वाले सर्वज्ञ कथित तप-जप आवश्यकादि अनुष्ठान भी पुण्य स्वरूप होने से परम आदरणीय और उपादेय हैं।
पुण्य शुभभाव स्वरूप होने से शुद्धभाव के सन्मुख है। अतः उसे सद्भाव भी कर सकते हैं जबकि पाप अशुभ भाव स्वरूप होने से आत्मा के शुद्ध स्वभाव से अत्यंत विपरीत है, विमुख है इसीलिए वह विभाव है। इस विभाग में से स्वभाव की तरफ ले जाता ज्ञान और क्रिया का सुमेल पुण्य के प्रभाव से होता है।