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परम को प्रमाण

दूसरों के दु:खों को दूर करना यह परमात्मा का स्वभाव है। इसीलिए परमात्मा नित्य वंदनीय है। बहुत लोग कहते हैं कि परमात्मा को वंदन करने से क्या लाभ?

परमात्मा को वंदन करने से पाप के साथ पाप बुद्धि का भी नाश होता है। क्योंकि परमात्मा सर्वथा निष्पाप है। परमात्मा को वंदन करने से अवंदनीय पदार्थों को वंदन करने की कमी दूर होती है। वंदन सिर्फ शरीर से नहीं, परंतु शरीर के साथ मन और हृदय से करना चाहिए। इससे मन और ह्रदय में प्रभुता प्रकट होती है और पशुता दूर होती है।

दु:ख में जो साथ दे वे ईश्वर। सुख में जो साथ दे वह जीव अर्थात् दु:ख में ईश्वर के ध्यान से शांति मिलती है जबकि जीव सुख में ही साथ देता है। स्वार्थ के कारण सुख में सभी साथ देते हैं दु:ख में कोई साथ नहीं साथ देता है।

जीव प्रभु के ध्यान से क्षणभर के लिए भी दूर होता है तब विषय और कषाय उसे घेर लेते हैं। प्रभु के ध्यान में प्रभु की आज्ञानुसार प्रवृत्ति करने से विषय वासना दूर होती है। इसीलिए प्रत्येक कार्य के प्रारंभ में प्रभु को प्रमाण करें।

परमात्मा को प्रणाम नहीं करने वाले भी अपनी आवश्यकता को प्रणाम करते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि इस दुनिया में कोई जीव ऐसा नहीं है जो प्रणाम किए बिना रह सकता हो। जिसे परमात्मा की आवश्यकता है, वह परमात्मा को प्रणाम किए बिना नहीं रहता।

भौतिक आवश्यकताएं हमेशा अपूर्ण रहती है। इसीलिए उन्हें प्रणाम करने में बुद्धिमत्ता नहीं है। जबकि परमात्मा को प्रणाम करने में बुद्धि की सार्थकता है, क्योंकि उसके फल रूप में भी सभी इच्छाओं का अंत होता है और परम सुख प्राप्त होता है।

अल्प आत्मा अल्प को प्रणाम करती है, महान आत्मा महान को प्रणाम करती है। महान वह है जो परम ऐश्वर्यमय है। अल्प के संग से महानता नहीं मिलती। अल्प वह है जो राग-द्वेष युक्त है, विषय कषाय के अधीन है और उसमें ही आसक्ति पूर्वक जीवन जीता है।

परम को प्रणाम जीवन के परम सौभाग्य का बीज है। सर्व मंगलो का प्रथम कारण है। जिनके उपकार अनंत है उन परमात्मा को ही वृद्धिगन्त भाव से प्रणाम करने में ही मन की सार्थकता है।

भगवान को वंदन करने से सभी पापों का नाश होता है। वंदन सिर्फ शरीर से ही नहीं परंतु शरीर के साथ मन से करना है।

वंदन यानी क्रियाशक्ति और बुद्धिशक्ति, दोनों प्रभु को समर्पित करना है। परमात्मा को वंदन पूर्णभाव से करना है। परमात्मा के जीवात्मा पर अनेक उपकार है। बोलने हेतु जीभ, देखने हेतु आँख, सुनने हेतु कान, चिंतन के लिए मन, निर्णय करने के लिए बुद्धि यह सब परमात्मा की कृपा से मिले हैं। उन उपकारों को याद करके ‘मैं परमात्मा का ऋणी हूं’ ऐसे भाव से वंदन करना है

‘मेरे पाप अनंत हैं उसी प्रकार है नाथ! तेरी कृपा भी अनंत है।’ ऐसा भावपूर्वक किया हुआ वंदन सफल बनता है। जिन्हें वंदन करने से आत्महित होता है उन्हीं को वंदन करना है। वंदन उन्हें होता है कि जो समस्त कर्म-बंधनों से मुक्त है और मुक्ति प्रदायक गुणों के प्रकर्षवाले हैं। भगवान को वंदन करने से जीव कर्म के बंधन से मुक्त बनता है।

देव, देवेंद्र और चक्रवर्ती को वंदन करने से जो मिल सकता है या वे जो कुछ दे सकते हैं वह तो जीव ने अनादि इस संसार में परीभ्रमण करते हुए अनेक बार प्राप्त किया है। फिर भी उसे पाने की इच्छा पूरी नहीं हुई।

यह अपूर्ण इच्छा बताती है कि हमने पूर्ण परमात्मा को सच्चे पूरे भाव से प्रणाम नहीं किया। परमात्मा को श्रद्धापूर्वक नमस्कार करनेवालों को पूर्णता मिलती है परंतु वह नमन समर्पित होकर करना है। इसीलिए अविलंब से परमात्मा की भक्ति में सभी शक्ति को समर्पित करें।

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