घड़ा पानी में डूबा रहे तब तक पानी में कहीं भी ले जाओ उसका वजन नहीं लगता। घड़े को पानी से बाहर निकालो तो तुरंत ही वजन लगेगा। उसी प्रकार मन को जब तक परमात्मा में डूबा रखेंगे, तब तक जगत का भार नहीं लगेगा।
प्रभु को अपने से भिन्न देखने से दु:खरुपता का भार महसूस होगा।
इसीलिए ‘मैं’ के पक्ष को छोड़कर प्रभु के ही पक्षवाले बनना चाहिए। प्रभु प्रेम के समुद्र रूप में सर्वत्र विराजित है। मन को उसी में मग्न रखने से समस्त राग वैराग्य में परिवर्तित हो जाएगा और अपूर्व शांति का अनुभव होगा।
साक्षी भाव रखकर, देहभान भूल जाना यह शांति की चाबी है।
प्रभु-परायण होने की हमें परंपरा मिली है, उसका गौरव होना चाहिए। अन्न-जल बिना चलेगा परंतु प्रभु बिना थोड़े क्षण भी जी नहीं सकेंगे! प्रभु के अलावा दूसरे किसी का भी भय रखने की जरूरत नहीं है।
प्रभु तरफ का प्रेम और उसके लिए नाम-रटन, यह प्रबल में प्रबल साधन है।
अपना सब कार्य प्रभु कर रहे हैं, इसका अर्थ यह है कि आत्मतत्त्व कर रहा है। इस दिव्य शक्ति बिना किसी से कुछ नहीं हो सकता है।
भगवान की शक्ति बिना सूखा पत्ता भी हिल नहीं सकता। इसका अर्थ क्रिया मात्र चेतन की शक्ति से होती है। चेतन की दिव्य शक्ति यह प्रभु का सामर्थ्य है।
प्रभु पर संपूर्ण विश्वास रखने से अक्षय शांति का अनुभव हो सकता है क्योंकि प्रभु स्वयं ही परम सामर्थ्यवान है।
अपने और परमात्मा के बीच अपना तुच्छ अहंकार, यही अंतराय है। ‘आप कौन हो’ यह समझ आने से दूसरी सभी बातों को समझने में कठिनता नहीं आएगी।
प्रसूति की वेदना होने पर ही बालक जन्म लेता है, इस कुदरती नियम का कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता।
सच्ची प्रार्थना में स्वयं शून्यवत बन जाए और सर्वत्र चैतन्य के दर्शन करें। कुछ मांगना ही नहीं। न्यूनता का अनुभव यह अपने स्वरूप की परिपूर्णता विषयक अज्ञान है। यह अज्ञान प्रभु पर के विश्वास को कमजोर करता है और मनुष्य स्वयं ही दु:खी होता है।
अपने असली स्वरूप को पहचानने के बाद सभी दु:ख स्वत: नष्ट हो जाते हैं।
जहां ‘अहं’ रखना चाहिए वहाँ नहीं रखते और जहां ‘अहं’ नहीं रखना चाहिए वहाँ ‘अहं’ रखते हैं, इसी कारण सभी अशांति खड़ी होती है। लेने की वृत्ति में से ही अशांति और उद्वेग का जन्म होता है। मुझे तो ऋण चुकाना है ऐसी समझ आ जाने से समस्त वृत्तियां शांत होने लगती है।
इस समझ के मूल में जगत के सभी जीव मेरे उपकारी हैं, यह भाव मुख्य रूप से कार्य करता है। इस भाव को स्वीकार करने से ही ‘अहं’ और ‘मम’ के मूल शिथिल बनते हैं और जीवन परमार्थ रसायन बनकर परम शांति का धाम बनता है।
‘मैं उपकारी हूं’ इस समझ में से अहंकार जन्म लेता है। वह जीव को जगत का अधिक देनदार बनाकर अति गरीब बनाता है। इसीलिए पर के छोटे से छोटे उपकार को पर्वत तुल्य मानने में आत्मा का श्रेय है। ऋणमुक्त की वृत्ति विकसित होने से भवमुक्ति की योग्यता अपने आप विकसित होगी।
परमात्मा का नाम ह्रदय में स्थिर होते ही जाने परमात्मा साक्षात दिखते हो, जाने ह्रदय में प्रवेश करते हो, मधुर आलाप करते हो, सभी अंगों में अनुभव होता हो और तन्मय भाव को पाते हो, ऐसा अनुभव होता हो तब समस्त कल्याणो की सिद्धि होती है।
अपने ह्रदय में आज कौन बैठा है? कौन राज कर रहा है? यह हमें जानना है। अहम के राज्य में रह-रहकर कंटाले हुए सभी विवेकी जीवो को यह प्रश्न सहजता से स्फुरित होता है।
सच्चा आनंद, पूर्ण सुरक्षा, निश्चिंतता परमात्मा के साम्राज्य में रहने से अनुभव करने को मिलती है। ह्रदय परमात्मा को सौंप देने से परमात्मा का साम्राज्य समग्र जीवन पर स्थापित होता है।
तात्पर्य यह है कि परमात्मा को ह्रदयेश्वर बनाने से एक ऐसे अनुपम, अपूर्व, अलौकिक जीवन का अनुभव होता है जिसमें आनंद ही होता है। किसी प्रकार का भय या चिंता वगैरह दोषों का एक अंश भी नहीं रहता।
जिन्होंने सभी जीवात्माओं को अपने जैसा पूर्ण विकसित, सर्वथा निर्लेप और स्वतुल्य स्थान दिया, परमात्मा को अपना ह्रदय सौपने में होने वाला संकोच, क्षोप, प्रमाद यह वास्तव में मोह का तूफान है। परमात्मा के नाम गुण आदि द्वारा ह्रदय को भर देने में ही मनुष्य जन्म की सार्थकता है और उसका अनन्य उपाय परमात्मा को ह्रदयेश्वर बनाना है।
मध्य रात्रि में आकर कोई पूछ ले कि आपके ह्रदय में कौन है? तो हम क्या उत्तर देंगे? ऐसा जवाब दें कि हमारे मन-ह्रदय में परमात्मा है। यही जवाब संसार से पार होने का उपाय है।