जीव का स्वरूप ‘सत्त’ है इसलिए जिव सतत जीना चाहता है। जिव का स्वरूप ‘चित् ‘है इसलिए जिव सभी को जानना चाहता है। जिव का स्वरूप ‘आनंद’ है इसलिए वह हमेशा सुख की चाहना करता है।
जिव में ऐश्वर्य यानी ईश्वर निहित है इसलिए जिव किसी के अधीन रहना नहीं चाहता परंतु सभी को अपने अधीन बनाना चाहता है। जीव स्वयं सच्चिदानंद स्वरूप होने का वर्णन आस्तिक दर्शन में है, उसका यथार्थ प्रतिपादन, ‘सच्चिदानंद’ यह शब्द करता है।
जीव का यह स्वरूप घन अर्थात दृढ़ से है फिर भी दूध में मिलकर रहने वाले पानी की तरह आत्मा ने कर्म रहते हैं, तब तक यह अपने संपूर्ण स्वरूप का संपूर्ण आनंद ले नहीं सकता । आखिर भीतर में जीव की सही इच्छा होने पर भी कर्म उसमें बाधक बनते हैं।
पर को सहाय करने से उस बाधक तत्व का अंत आता है। यहां पर स्वतुल्य यानी सर्व जीवो को अपने समान समझाना है।
इष्ट की प्राप्ति में सभी के इष्ट की चाहना रूप शुभ भाव प्रधान कारण बनता है।
ईशित्व और वशित्व यह जिव का मूल स्वभाव है। नाद द्वारा ईशित्व और ज्योति द्वारा वशित्व प्राप्त किया जा सकता है। नाद की अभिव्यक्ति नाम से और ज्योति की अभिव्यक्ति रूप से हुई है, हो रही है और होती है।
नाद में पूर्ण स्वाधीनता है । यदि वह नहीं हो तो वह नाद नहीं, उन्माद है।ज्योति में सर्ववशिता है।
जिव की ज्ञान ज्योति विश्वव्यापी है। वह सभी को वश करती है लेकिन वह किसी के वश नहीं होती ।
प्रभु का नाम नाद रूप से भीतर में निरंतर चलता रहता है। उसका ध्यान स्वाधीनता प्राप्त करवाता है। नाद का ध्यान असाधारण कला है शुद्ध, शांत और रिक्त चित्त इस ध्यान के लिए योग्य है। ऐसे चित्त वाला जीव ही यह ध्यान कर सकता है।
प्रभु की ज्योति ज्ञान रूप से सदा प्रकट होती है। उसका ध्यान विश्वव्यापकता और सर्ववशिता प्राप्त करवाता है।
नाम और रूप ग्रहण द्वारा नाद और ज्योति का ग्रहण होता है और नाद और ज्योति के ग्रहण से स्वाधीनता और सर्वोपरिता प्राप्त हो सकती है ।
धर्मसाधना का यह सरल उपाय है। धर्मसाधना यानी शुद्ध आत्मस्वभाव की साधना।
जीव का ऐसा स्वरुप है वैसी ही जीवन की साधना है। जीव को स्वरूप प्राप्ति के लिए ही जीवन को साधनामय बनाना है। जीवन में जो कुछ भी साधना करनी है तो वह जीव के परिपूर्ण स्वरूप की प्राप्ति के लिए करनी है।