आत्मद्रव्य की मधुरता का जैसे – जैसे अनुभव होता है वैसे – वैसे नित्य समताभाव की अनुभूति में अंनत काल तक रहनेवाले सिद्ध भगवंतो की तरह रहने की कुछ झाँकी मिलती है।
निज स्वरूप वह जिन स्वरूप है , उसकी अनुभूति सामयिक में प्रणव (ॐ) का ध्यान करते समय कुछ अंश में होती है। उससे बहुत प्रसन्नता का अनुभव होता है।
प्रणव ध्यान में, शब्दो से जिसका वर्णन नही हो सकता, ऐसी शब्दातीत एक मात्र चेतना रहती है।
शुद्धात्म द्रव्य की मधुरता , जो निश्चय सामायिक रूप है, उसका यहाँ अनुभव होता है। शुद्ध ज्ञान चेतना की अनुभूति होने पर जो भी सानुकूलता चाहिए वे खिंचकर आती हैं। शुद्धात्म द्रव्य का ध्यान एक और कर्म की निर्जरा करता है तथा दूसरी और उत्कृष्ट पुण्यानुबंधी पूण्य का उपार्जन करवाता है।
आत्मानुभूति के सामने शरीर भी उपाधि समान भासित होता है। सच्चिदानन्द स्वरूप की झाँसी के समय ऐसा अनुपम आनन्द होता है कि ‘ वह हमेशा के लिए स्थिर बन जाए’ ऐसी तीव्र भावना प्रकट होती है।
श्री नवकार पर प्रीति- भक्ति अल्प क्षणों में स्वरूप लाभ तक ले जा सकती है। पंच परमेष्ठी भगवंतो का कितना महान उपकार ! श्रुत ज्ञान भी उसके किसी भी आराधक को अनुभूति तक को ज्ञान दे सकता है। इसलिए शास्त्र और उनके रचयिताओं की अपरिचित शक्तियों को मामूली नही समझना चाहिए। अपनी बुद्धि की अल्पता से उनका मूल्यांकन नही करना चाहिए।
शास्त्रो का ध्येय भी उनके आलंबन लेनेवालो को आत्मसाक्षात्कार करना ही है।
इसलिए श्री नवकार एवं शास्त्रो का हमेशा अनन्यभाव से स्मरण- मनन- चिंतन- ध्यान करना चाहिए। उनके द्वारा आत्मा की तरफ गमन होता है। एक बार इस रास्ते पर आने जाने से बहिरात्मभाव क्षीण -प्रायः हो जाता है और नदी की तरह समस्त शक्तियों का प्रवाह आत्मभाव में समाविष्ट होने का उत्सुक बनता है। ऐसा अनुभव श्री नवकार भक्ति एवं शास्त्रो की भक्ति से शीघ्र होता है।