नवपदात्मक परमात्मा का स्मरण-मनन-ध्यान यही इस मनुष्य-जन्म का प्रथम एवं उत्कृष्ट कर्तव्य है।
भक्ति योग का जीवन के साथ क्या संबंध है। इस कारण आत्मोत्थान के लिए यह सहज एवं सरल साधन गिना जाता है।
भक्ति का मूल बुद्धि से परे इसी श्रद्धा में रहा हुआ है। फिर भी भक्ति में विवेक का भी स्थान है। जितनी अधिक श्रद्धा होगी उतनी अधिक भक्ति होगी। असीम श्रद्धा को नास्तिक लोग ‘अंधश्रद्धा’ कहते हैं। ‘अंधश्रद्धा’ यह अवगुण नहीं है यदि वह ईश्वर या सद्गुरु के प्रति हो तो।
प्रेरण या विवेक के बल श्रद्धा के केंद्र को पसन्द करने पर उसमें शंका-आशंका को प्रवेश करने देना अवगुण है। एक राई जितनी असीम और गहरी श्रद्धा पर्वत को हिला सकती है। ऐसी श्रद्धा के बल से समुद्र का उल्लंघन हो सकता है और पानी भी औषधि बन सकता है।
भक्ति, श्रद्धा या दया बिना का व्यक्ति मनुष्य नहीं असुर है। कोई भी बुद्धिमान ऐसा नहीं होगा कि उसे किसी-न-किसी व्यक्ति या विषय पर श्रद्धा से नहीं चलना पड़ता है।
मैं अन्य किसी का नहीं, किंतु अपने माता-पिता का ही पुत्र हूं यह विश्वास से ही मानना पड़ता है। कारण कि पुत्र का पिता कौन है, वह माता के अलावा कोई नहीं जानता। पिता खुद भी अपनी संतानों को अपनी मानता है उसमें भी श्रद्धा और विश्वास ही मुख्य रूप से कारण है।
इस तरह जीवन में कदम-कदम पर विश्वास और श्रद्धा बिना नहीं चलता। तो फिर ईश्वर के साक्षात दर्शन करनेवाले योगी के अनुभव के आधार पर प्रकट हुए वचनों पर विश्वास रखकर योग मार्गपर चलनेवालों को प्रभुप्राप्ति क्यों न होगी? अर्थात अवश्य होगी।
श्रद्धा जब संशय बिना की बनती है तब ही वह निर्विकल्प समाधि का कारण बनती है। ऐसी श्रद्धा का सामर्थ शब्दातीत है।