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प्रभु, प्रेम और विश्वास

साधक के लिए दु:ख का भय और सुख की आसक्ति दोनों त्याज्य है। स्वयं को देह स्वरूप मानने में स्वयं के ज्ञान का अनादर है। इच्छा, द्वेष, सुख, दु:ख आदि विकारों की उत्पत्ति देहभाव से होती है।

इच्छा पूर्ति करना कठिन है परंतु उसका त्याग करना कठिन नहीं है। इच्छा पूर्ति में जीव पराधीन हे, त्याग में स्वाधीन। प्रभु प्रेम का परिणाम सद्गुण और सदाचार के साथ प्रेम और विश्वास है। जो प्रभु पर पूर्ण प्रेम रखता है, विश्वास धारण करता है, वह प्रभु की कृपा प्राप्त कर सकता है।

अपने आपको जो पतित मानता है, वह पतित-पावन-परमात्मा के आलंबन से तिर सकता है। भगवान को प्राप्त करना कठिन है ऐसा मानना भूल है। भगवान से मनुष्य की थोड़ी भी दूरी नहीं है। भगवान की शरण में जाते ही वे भक्त को अपना लेते हैं। भगवान की शरण स्वीकार करने में बाधक मनुष्य का अभिमान है। यह अभिमान शरण में अवरोधक है।

भगवान सर्वशक्तिमान, पतित-पावन, दीन-वत्सल, सर्वगुणसंपन्न परब्रह्म परमेश्वर है। कोई भी प्राणी चाहे कितना भी दीन, हीन, नीच या पापी हो उसे भी स्वीकार करने में भगवान किसी भी स्थान पर या किसी भी समय पर शरणागतवत्सल रूप में तैयार है। शरणागति यह अनिवार्य शर्त है, उसके प्रभाव से मनुष्य के सभी दोष नाश पाते हैं।

मन और बुद्धि को संपूर्णतया जोड़ने के लिए विश्वास न होने के जितने कारण है उन्हें खोजकर मंद करना चाहिए और भगवान पर विकल्प रहित अचल विश्वास धारण करना चाहिए। किसी भी परिस्थिति में भगवान का भी विस्मरण न हो जाए उसके लिए नाम-जाप का अभ्यास बढ़ाना चाहिए।

अभिमान करने से गुण भी दोष में बदल जाते हैं। अपने किसी भी गुण का अभिमान होता है तब सर्वगुणसंपन्न परमात्मा का स्मरण करने से वह अभिमान पिघल जाएगा और परमात्मा-प्रेम बढ़ेगा।

जिस पर विशुद्ध प्रेम होता है उस पर अखुट विश्वास होता ही है। प्रभु प्रेम के सागर है, इस त्रिकालाबाधित सत्य में पूर्ण विश्वास जब जीवन का श्वास बनता है तब समझना है कि हमारा जीवन सफल है।

स्थिर, नित्य, शुद्ध, शाश्वत, अखंड, अक्षय ऐसे परमात्म तत्व से बढ़कर तत्व तीन लोक में कोई नहीं, तो फिर पूर्ण प्रेममय परमात्मा पर पूर्ण विश्वास करने में देरी क्यों! परमात्मा पर तत्काल विश्वास स्थापन पर अखुट जीव स्नेह बांधना चाहिए। परमात्मा के चरणों में सर्वस्व समर्पित करना चाहिए।

परमात्मा अपने अनंत जीवन में से दया का अमृत निरंतर बरसा रहे हैं। हमें उनके सम्मुख होने की आवश्यकता है। अपने वृत्तियों को उनकी तरफ झुकाने की जरूरत है। सम्मुख होते ही उनकी अनुपम दया का साक्षात्कार होता है।

ह्रदय से निराश हो जाए और बुद्धि थक जाए तब दीनभाव से परमात्मा की शरण में जाने से अपूर्व शांति मिलती है। उस समय शरणागति द्वारा मन, बुद्धि और प्राणों को परमात्मा की निष्काम करुणा के प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं।

परमात्मा की शक्ति अनंत है, अपार है, अपराजित है। परमात्मा का प्रेम सर्वथा विशुद्ध है, निष्काम है। उसमें राग तथा कर्म के एक अणु का मिश्रण नहीं होता।

ऐसे अनुपम शक्तिशाली परमात्मा को ह्रदय के गुप्त से गुप्त प्रदेश को सप्रेम अर्पण किया जाए तो कामवासना के सूक्ष्म से सूक्ष्म बीज का भी वह समूल ध्वंस कर देता है।

अंतर की गहराई में रहे प्रभु के दिव्य स्वरूप की शरण में रहने की कला जिनको सिद्ध हुई है, उनको ये सभी बातें प्रत्यक्ष है।

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