अनित्य वस्तुओं के लिए शोक करना, अरे! विचार भी करना वह बुद्धिहीनता है। जो अनित्य है उसका नाश नहीं होगा तो किसका नाश होगा?
अनित्य वस्तु आए या जाए, उस पर विवेकी आत्मा थोड़ा भी ध्यान नहीं देती क्योकि वह अनित्य है। अनित्य वस्तु पर राग रखना वह स्वयं ही दुःखदायक है। इस बात का सभी को अनुभव होता है।
जो सत्य वस्तु है, उसे तदनुसार मानना अतिसुगम है। इस तरह यथार्थ बोधवाली बुद्धि हो जाने से मन में अपने आप शांत और स्थिर बनता है और वही मन ध्यान योग्य बनता है।
मन के राग रूप दोष को दूर करने के लिए वीतराग का ध्यान रूप साबुन लगाने से मन निर्मल बनता है। जैसे-जैसे मन निर्मल बनता है, वैसे-वैसे अधिकाधिक आनंद का अनुभव होता है, उसके बाद मन पर में जाने की इच्छा नहीं रखता।
कर्मोदय से कोई बाहर जाए तो फिर से स्व में आता है।
अज्ञानी का मन स्व में से पर में चला जाता है जबकि ज्ञानी का मन पर में से स्व में आता है। जहां आनंद मिले वहां मन जाए यह स्वभाविक है। स्वध्यान ऐसे तो पुरुषार्थ कहलाता है, परंतु मेहनत बिना का, इतना ही नहीं अपितु आनंद के अनुभव का पुरुषार्थ है। सिर्फ बोध-अबोध का खेल है दूसरा कुछ नहीं है।
हाँ, जिसका मन थोड़ा भी वश में नहीं है उनके लिए यह पुरुषार्थ अत्यंत कठिन बने, ऐसा हो सकता है। सही समझ से मन अपने आप स्वस्थान में आ जाता है। अमुक क्रिया, अमुक स्थान या आसन उसके लिए जरूरी नहीं है इसलिए प्रत्येक साधक के क्रिया, स्थान, आसन आदि अलग-अलग होते हैं किंतु ज्ञान एक ही होता है। वास्तव में ज्ञान यह जरूरी वस्तु है। ज्ञान क्रिया और विरति को खींचकर लाता है। क्रिया ज्ञानवान को ही फल देती है। ज्ञान से क्रिया शोभा पाती है। ज्ञान करने से जितना आदर है उतना ही समझने में आदर आए तो क्रिया की शोभा बढ़ जाए।
‘मैं आत्मा ही हूँ’ ऐसी यथार्थ समझ होने के बाद क्या करने जैसा है? किससे लाभ होता है? यह सीखना नहीं पड़ता। जो करने जैसा है वह करे बिना नहीं रहता। संयोग न होने पर न हो फिर भी अभिलाषा तो उसी की रहती है। जहां से लाभ होता हो, वहाँ दौड़े बिना कौन रहता है?