जो भी मनुष्य “अष्टापद तीर्थ” की यात्रा खुद के बलबूते (लब्धि) से कर लेता है वह उसी भव में मुक्त हो जाता है – भगवान महावीर के ये वचन सुनकर श्री गौतम स्वामी अपनी लब्धि से “सूर्य” की किरणों के सहारे अष्टापद पर्वत पर आकाश मार्ग से पहुंचे।
अष्टापद तीर्थ पर 1500 तापस अपनी तपस्या के जोर से सिद्धि प्राप्त करते हुवे कुछ सीढ़िया चढ़ सके थे, परन्तु और ऊपर पहुँचने में खुद को असहाय पा रहे थे. (एक एक सीढ़ी 1 योजन ऊँची थी, इसलिए)!
श्री गौतम स्वामी की लब्धि को देखकर वे आश्चर्य चकित हुवे जब उन्होंने बड़े आराम से तीर्थ के दर्शन कर लिए…
(जिन मंदिरों के दर्शन की महत्ता यहाँ पर सिद्ध हो जाती है – अष्टापद तीर्थ पर चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियां उन के शरीर के माप के अनुसार ही श्री भरत चक्रवर्ती ने भरवाई हैं और सभी तीर्थंकरों की नासिका एक ही सीध में है, क्योंकि सभी के शरीर का माप एक सा नहीं था, इसलिए स्थापना के समय जमीन से “ऊंचाई” एडजस्ट करके सभी की नासिका एक ही सीध में रहे, ऐसा किया गया)
सभी ने श्री गौतम स्वामी को अपना “गुरु” बनाने का निर्णय किया। पर गौतम स्वामी ने कहा “मेरे भी गुरु हैं” – उन्हीं के पास चलो।
जाने से पहले सभी 1500 तापसों को तत्त्” समझाकर दीक्षा दी और अपनी लब्धि से परमान्न ( खीर ) का पारणा करवाया।
उसी “अष्टापद तीर्थ” पर श्री गौतम स्वामीजी ने जगचिन्तामणि चैत्यवंदन सूत्र की रचना की है…
किसी पहाड़ पर तीर्थ के जब हम दर्शन करने जाते हैं, तो हमारे भाव खूब ऊँचे होते हैं, फिर गौतम स्वामी जी द्वारा ऐसे दुर्गम तीर्थ पर चढ़कर दर्शन करना जिससे उसी भव में मोक्ष की गारंटी हो गयी हो और फिर वहीँ जग चिंतामणि चैत्यवंदन सूत्र की रचना करना – तो उसका प्रभाव कितना अधिक होगा!
अष्टापद तीर्थ पर जग चिंतामणि सूत्र की रचना करते समय उन्हें पालिताना के श्री आदिनाथ भगवान याद आये, गिरनार तीर्थ के श्री नेमिनाथ भगवान याद आये, भरुच के श्री मुनिसुव्रतस्वामी याद आये, टिन्टो के श्री पार्श्वनाथ भगवान याद आये और सांचोर के श्री महावीर स्वामी याद आये। इससे हम इस सूत्र की ही नहीं, इन सब तीर्थ स्थानों की भी महिमा समझ सकते हैं।
इसी स्तोत्र में वो आगे बात करते हैं अपने मन के उत्कृष्ट भावों की :
१. तीनों लोकों में स्थित 8,57,00,282 जिन मंदिरों को प्रणाम करता हूँ,
२. जगत में 15,42,58,36,080 शाश्वत प्रतिमाओं को प्रणाम करता हूँ।
ऐसे उत्कृष्ट भाव वाला सूत्र हमारे आचार्यों ने 2500 वर्षों से संभालते हुवे हमें दिया है, जिसका उच्चारण करने मात्र से हम इतने करोड़ जिन मंदिरों और अरबों प्रतिमाओं को ये सूत्र बोलने मात्र से नमस्कार कर पाते हैं।
क्या अब भी हम रोज जैन मंदिर के प्रत्यक्ष दर्शन करने के लिए नहीं जाना चाहेंगे?