अनंत कोटी सिद्ध के स्थान रूप में श्री शत्रुंजय तीर्थ की भूमि की ही प्रसिद्धि का क्या कारण है? इस प्रश्न का समाधान प्रखर तार्किक और परम बुद्धिनिधान, शास्त्रवेत्ता, वाचकप्रवर श्री यशोविजय जी महाराज इन शब्दों में कहते हैं-
श्री सिद्धाचलादी तीर्थों का आराध्यत्व बताया। ज्ञान दर्शन चरित्र रूप भावतीर्थ का हेतु होने से उसका द्रव्यतीर्थत्व है। अनंत कोटी सिद्ध के स्थान रूप में अन्य क्षेत्रों से उसकी विशेषता नहीं है किंतु तीर्थ की स्थापना द्वारा होता स्फुटप्रतियमान अर्थात स्पष्ट रूप से भाव की अनुभूति से उसकी विशेषता है।
अनुभव और आदि शब्द के द्वारा आगम से और अनुमानादी प्रमाणों से यह सिद्ध है। श्रुत की परिभाषा किसी के अधीन नहीं है। यदि ऐसा होता तो चतुर्विध श्रमणसंघ को, तीर्थ और तीर्थंकर देव को तीर्थ बाह्य कहा है वह विचार की कक्षा में नहीं आ सकता। अमुक प्रकार के व्यवहार के लिए जिस तरह वे परिभाषाएं की गई है उसी तरह यहां भी ऐसा ही समझना। एक को (अनंत कोटी सिद्ध स्थान) कहना और दूसरे को न कहना यह शास्त्रीय परिभाषा के अधीन है। विद्वान पुरुष इससे मोह नहीं पाते।
पू. उपाध्यायजी महाराज के इस समाधान से श्री शत्रुंजय तीर्थ की अनंत कोटी सिद्ध स्थान रूप में प्रसिद्धि कितनी सहेतुक और प्रमाणिक सिद्ध है, यह माध्यस्थ बुद्धि वाले विद्वान आसानी से समझ सकते हैं
द्रव्य तीर्थों में लोकोत्तर द्रव्य तीर्थ श्रेष्ठ है और उसमें भी श्री शत्रुंजय तीर्थ सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि वहां अनंतकोटी सिध्दों की स्थापना है। इस स्थापना की कोई आदि (शुरुआत) नहीं है, इस कारण यह तीर्थ अनादि और शाश्वत है, अन्य स्थान नहीं। अन्य स्थान पर एक, दो अथवा इससे अधिक अरिहंत या तीर्थ की स्थापना है।
सभी तीर्थंकर भगवान, गणधर, केवलज्ञानी और श्रुतधर महर्षियों ने इस स्थापना को स्वीकार किया है और उपदेश दिया है एवं उसके अनुसार अनंत आत्माएं इस तीर्थ के दर्शन, स्पर्शनादी करके पावन होती है और होगी। इसीलिए श्री शत्रुंजय तीर्थ की महिमा सभी तीर्थों की महिमा से अजोड़ है, अद्वितीय है, अनंत है। श्रद्धालु आत्मा इसके नाम-स्मरण से भी रोमांचित होती है और इस तीर्थ की भक्ति के लिए अपने तन, मन, धन सर्वस्व को सोल्लास समर्पण करती है। विद्यमान चैत्य और उनकी विपुलता भी इस बात के साक्षी है।
भाव के कारण रूप द्रव्य तीर्थ की स्पर्शना द्वारा शुभ भाव उत्पन्न होता है और उससे भाव दाह, भावतृषा और भाव पंक निश्चित रूप से दूर होते हैं।
आत्मा के भीतर रहा क्रोध रूप कषाय यह भाव दाह है, विषय-विकार यह भावतृषा है और महोदय यह भाव पंक है।
तीर्थ के सेवन से जीव के यह भाव दोष दूर हो जाते हैं।
श्री शत्रुंजय महातीर्थ का सेवन, पूजन, भावन आदि इस ध्येय को लक्ष्य मे रखकर करने में आता है तब उसे करनेवालों के वे वे दोष नष्ट हुए बिना नहीं रहते और फलस्वरूप आत्मा में भावशांति, भाव संतोष और भाव निर्मलता प्रकट होती है, जिसके प्रभाव से इन तीनों गुणों का प्रकर्ष जहाँ रहा है ऐसे सिद्धस्थान का जीव भोक्ता बनता है, निर्मल आत्म-स्वरूप का मालिक बनता है।