अपना प्रत्येक कार्य अपने जीवन की शक्ति पर असर करता है । दुष्कर्म करने वाला या पाप करने वाला पलभर भोगविलास करते दिख सकता है, परंतु वह कितना निर्बल बना, उसका कुछ ख्याल आता है ?
एक सत्कार्य तुम्हारे दूसरे सत्कार्य का सपोर्टर बनकर तुम्हारी दृढ़ता में बल प्रदान करता है और एक दूसरा ऋतु में खींचकर, निर्बल बना कर नीचे गिराता है ।
जीवन भोगों को भोगने के लिए नहीं है । एक भोग दूसरे भोगों में फसता है। हमें निर्बल और कृपण बनाता है ।
तुम्हें तुम अमर हो तो तुम्हें भय किसका ?
तुम सभी में एकमेक हो तो तुम्हें द्वेष किस पर ?
तुम श्रेष्ठ हो तो फिर तुम्हें ईर्ष्या कैसे ?
तुम्हारा ही सब कुछ हो तो फिर लोभ् क्या ? और परिग्रह क्या ?
ऐसे विचारों से इस मिट्टी के देह में और चित्त में भी आत्मा की कला प्रकट हो सकती है ।
चित्रकार कागज पर, शिल्पकार पत्थर पर और गायक वंजित्र पर चैतन्य की चमक प्रकट कर सकते हैं, इसी तरह हम भी आत्माकला प्रगट क्र सकते है ।