प्रसन्नता का दान अर्थात् किसी के ऊपर निरंतर प्रसन्न दृष्टि से देखना। यह प्रसन्नता का यानी सम्मान का दान है। प्रत्येक प्रसन्नता संपत्ति को उत्पन्न करती है, यानी संपत्ति के पहले दौड़नेवाला घुड़सवार है और संपत्ति की बिरूदावाली बोलनेवाला छड़ीदार है।
प्रभु भक्ति में से प्रकट होती चित्त की प्रसन्नता, यह एक ऐसी चुंबकीय शक्ति है कि जिसके प्रभाव से शत्रु भी मित्र बनता है, आपत्ति संपत्ति में बदल जाती है और किसी भी प्रकार के प्रमाद को स्थान नहीं मिलता।
पुण्य का फल शुभ है, अतः वह दूसरों के लिए इच्छनीय है।
पाप का फल अशुभ है, अतः वह दूसरों के लिए इच्छनीय नही है।
इच्छा और संकल्प पुण्यवान को ही फलता है, पापी को नहीं! इस कारण पाप के फल की कोई दूसरों के लिए इच्छा करें तो भी वह इच्छा निष्फल रहती है।
दूसरों के लिए अशुभ की इच्छा दूसरों का अशुभ करें या न करें परंतु स्वयं के शुभ का नाश करती ही है। अशुभ की इच्छा की यानी तत्काल ही शुभ का नाश हो गया, ऐसा समझना।
किसी को अपना अशुभ पसंद नहीं है, यह वास्तविकता ही सभी के लिए शुभ की इच्छा करने को प्रेरित करती है। स्वयं के शुभ के लिए दूसरों के अशुभ की इच्छा करना यह सामने वाले को अपशकुन कराने के लिए स्वयं की नाक कटाने जैसा है। मलिन दर्पण में मुख नहीं दिखता, उसी प्रकार मलिन मन में शुभ नहीं होता।
यह अपशकुन शुभ्र ज्योत्सना समान मैत्र्यादि भावो को घात करनेवाला है। काले कोयले से भी अधिक काला, यह कालपन कभी किसी के मन में प्रवेश न करें ऐसी भावना करनी चाहिए, यह शुभेच्छुक का फर्ज है।
सभी के लिए वह इच्छनीय है जो अंत:करण पूर्वक हम अपने लिए इच्छा करते हैं।
नश्वर पदार्थों की याचना यह प्रार्थना रूप नहीं है, किंतु वासना रूप है। जिस क्षण जीवात्मा क्षणिक वस्तु से विराम पाता है और नित्य वस्तु की इच्छा करता है, उस क्षण से सच्ची प्रार्थना का प्रारंभ होता है। दिव्य प्रार्थना का यह सनातन प्रवाह बहता ही रहता है।
साधु-संत और भक्त आत्माएं सदा निष्काम प्रार्थना करते हैं। इस प्रार्थना के स्वीकार से ही जाने पृथ्वी, पानी, पवन, वृक्ष, सूर्य, चंद्र, मेघ वगैरह समस्त प्रकृति मानव रूप पौधे को अधिक उन्नत करने हेतु सहाय कर रहे हो, ऐसा अनुभव में आता है।
चैतन्य की दिव्य एकता यह आत्मा का रसायन है। उसके लिए प्रार्थना जिनके ह्रदय में पैदा होती है, वे नि:शंक, निर्भीक और निर्विकल्प बन जाते हैं। ऐसी दिव्य प्रार्थना का तत्कालिक फल एकांत ह्रदय शुद्धि है। ह्रदय को शुद्ध करना और उस शुद्धि को स्थिर रखना यही प्रार्थना की सच्ची सिद्धि है।
शुद्ध और स्वस्थ ह्रदय में ही परमात्मा का यथार्थ प्रतिबिंब पड़ता है।
चित्त में राग-द्वेष, माया, कपट, विषय-विकार आदि कुसंस्कार जितनी मात्रा में अल्प होते हैं उतनी मात्रा में ह्रदय रूप दर्पण शुद्ध बनता है और उतनी मात्रा में आत्मा को परमात्मा के सानिध्य का लाभ मिलता है।
ह्रदय शुद्धि हेतु उस शिक्षा का नाम ‘प्रभु प्रार्थना’ है। नित्य वस्तु की प्राप्ति हेतु अभिलाषा ही ह्रदय को शुद्ध करती है।
परमात्म तत्त्व नित्य है और उसके प्रति भक्ति धारण करनेवाले भक्त भी हमेशा रहते हैं। बाह्य दृष्टि से वे न देखें फिर भी अंतरंग दृष्टि खुलने पर वैसे ही वक्त हमें नजर आते हैं।