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दान शील तप भाव योग

अपने घ्र को छोड़कर बाहर भटकना जितना दुखदायक है उतना कष्टदायक आत्मभाव को छोड़कर परभाव में भटकना है ।

स्व आत्मा को अपना भाव देने हेतु स्व का योग करवाने वाले दान , शील तप भाव और योग में जीवन को सलग्न करना चाहिए । आहार भय निद्रा और मैथुन का योग परभाव और परिग्रह को उत्तेजित करता है । उसमें से मुक्त होने के लिए दान , शील , तप , भाव योग आवश्यक है ।

दान का उत्कृष्ट अर्थ स्वयं ( में ) की चिंता को सर्व की चिंता में परिणमित करना है । इंद्रियों और मन को आत्मा में लीन करना वह शील है । दान से देह का अधिकार निकल जाता है और शील से आत्मा का अधिकार आ जाता है । तप आत्मा को निर्मल बनाती है । भाव आत्मा की अनुभूति करता है । शरीर , वाणी और विचार उसके आज्ञानकित बनते है ।

निःस्वार्थ भाव सच्चे सत्व को प्रगट करता है । मन वचन और काया पर आहार , भय , निद्रा और मैथुन का जोर है । उसके स्थान पर सर्व जिव हितकारी श्री अरिहंत प्रभु की आज्ञा का प्रभाव होना चाहिए । उसी का नाम आत्मजागृति है । उसी से दरिद्रता , अल्पता क्षुद्रता और पामरता का अंत आता है ।

जीवो के प्रति अमैत्री भाव का त्याग करना यह मार्ग है , मार्गनुसारिता है , उसी से आत्मभाव का मंगलमय प्रभात उदित होता है ।

आत्मा में अवस्थान
November 21, 2018
आत्मरसिकता
November 21, 2018

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