ज्ञानी पुरुषों ने करने, कराने और अनुमोदना का एक समान फल बताया है। उसका कारण यही है कि तीनों परस्पर संबंधित है। करने में कराने में और अनुमोदन का, कराने में करने और अनुमोदन का एवं अनुमोदना में करने और कराने का भाव जीवंत तो हो तो यह तीनों वास्तविक रूप से कार्यसाधक और फलदायक बनते हैं, इन तीनों का स्वरूप निम्नानुसार है-
(1) करना- कोई भी शुभ कार्य करने में उस कार्य के उपदेशक श्री अरिहंत परमात्मा की आज्ञा-पालन का अहोभाव होने से उनकी आज्ञा का बहुमान यानी अनुमोदन होता है। एवं शुभ कार्य करने का सुअवसर स्वयं को मिला उसके लिए देव-गुरु की कृपा का उपकार मानकर अपने आपको सदभागी समझता है। और किए गए सुकृतो की पुनः पुनः अनुमोदना करता है एवं दूसरे पुण्यशाली जीव उस शुभकार्य को देखकर वे भी उसे करने की प्रेरणा के अर्थात स्वयं भी अन्य जीवो के शुभ कार्य में प्रेरक सहाय बने और सभी के सत्कार्यों की अनुमोदना भी पुण्यकार्य के करनेवाले पुण्यात्मा के अंतर मन में रहती है।
(2) कराना- कोई भी शुभ कार्य दूसरों जीवो के द्वारा कराने या उसमें सहायक बनने से स्वयं वह कार्य नहीं करने के खेद के अनुभव के साथ “में जल्दी उस सत्कार्य करने को प्रयत्नशील बनू’ ऐसी शुभ इच्छा होती है और साथ ही सभी जीवो के समस्त सत्कार्यो की अनुमोदना भी होती है।
(3) अनुमोदना- किसी भी पुण्यकार्य की अनुमोदना में स्वयं नहीं कर पाने या करवा पाने के मानसिक दु:ख के साथ करने और कराने की शुभ भावना और सभी के करने, कराने और अनुमोदना रूप सत्कार्यों की अनुमोदना होती है।
अनुमोदना की भी अनुमोदना-अनुमोदक में करने-कराने और अनुमोदना की शक्ति का बीजारोपण करती है और शक्ति को विकसित करती है। सत्कार्य करने और कराने का शुभ अवसर कभी-कभी और थोड़े समय के लिए मिलता है और अनुमोदना बार-बार दीर्घकाल तक हो सकती है। इसीलिए अनुमोदना का महत्व और सामर्थ्य अधिक बताने में आया है।