Archivers

भेदाभेदात्मक तत्वज्ञान

Discrimination-self-philosophy

Discrimination-self-philosophy
एकता तीन प्रकार की है-
1)जातिगत
2)गुणगत
3)पर्याय गत

पर्यायगत एकता द्रव्य रूप स्वरूपास्तित्व है।
गुणगत एकता प्रदेशगत एकाधारता रूप है और
जातिगत एकता समष्टि स्वरूप सदृश्यास्तित्व रूप है।
जातिगत एकता का भान स्नेह भाव विकसित करता है।द्रव्यगत एकता का भान समत्वभाव,स्थेर्य भाव और ध्रुव भाव विकसित करता है।
एकाधारतारुप प्रदेशगत एकता का भाव आनंद भाव को विकसित करता है ।

अनेकता तीन प्रकार की है-
1) व्यक्तिगत
2)पर्यायगत
3)गुणगत

व्यक्ति अनंत है । एक ही द्रव्य में अनंत है और पर्याय भी पर्याय की अशुध्दि पर्याय सहवर्ती गुण और पर्यायाधार द्रव्य की भी अशुध्दि करती है इसलिए पर्याय अशुद्धि को दूर करने हेतु साधना आवश्यक है।

पर्याय में रही अशुद्धि को दूर करने की साधना असत प्रवृत्ति को रोकने से और सत् प्रवृत्ति को विकसित करने से होती है । असत को रोकना वह संयम है और सत का सेवन करना वह तप है ।

एकता का विचार अहिंसा की पुष्टि करता है।
अनेकता का विचार संयम और तप को पुष्ट करता है।

अहिंसक भाव तीन प्रकार के हैं-
1. आत्मा के ज्ञानादि भाव । 2.पर के द्रव्य और भाव प्राण।
3.स्व और पर दोनों के द्रव्य और भाव प्राण।

उनकी रक्षा और संयम यह सहजमल की जुगुत्सा रूप है ।तप यह तथाभव्यत्व स्वभाव की अनुमोदना रुप है।

निश्चय नय का विचार यानी एकता का विचार अहिंसा की साधना के लिए उपयोगी बनता है।
अभेद तीन प्रकार के हैं और भेद के भी तीन प्रकार है-

अभेद के तीन प्रकारों में प्रथम जातिगत अभेद है दूसरा द्रव्यगत अभेद और तीसरा प्रदेशगत अभेद है। वे क्रमशः रूचि, बोधि और परिणति रूप निश्चय रत्नत्रयी को विकसित करते हैं।

भेद भी तीन प्रकार के हैं-
1) व्यक्तिगत भेद
2) पर्यायगत भेद और
3)गुणगत भेद।

वे व्यवहार रत्नत्रयी यानी तत्व रुचि के कारणभूत जीन प्रतिमा, चैत्य, आगम, वचना, प्रच्छना, प्ररावर्तनादि, तत्त्व परिणति के कारणभूत गुरुकुल वास का सेवन , समिति गुप्ती का पालन, मूल उत्तर गुणों का धारण, व्रत नियम पचक्खानादि आदि का सेवन करना , इस तरह व्यवहार रत्नत्रयी की उपयोगिता भेद् नय के विचारों को सिद्ध करती है । वस्तु मात्र भेद अभेद स्वरुप है । इसलिए सामायिक का परिणाम एक और वासी चंदन कल्प कुशलता रूप कहा गया है और दूसरी और सभी योगो की शुद्धि रूप कहा गया है । यह दोनों मिलकर नीरवध धर्म बनता है ।
द्रव्य से नित्य, गुण से पूर्ण और जाति से एक ऐसे आत्म द्रव्य का चिंतन करना वह निश्चय नय का विषय है ।
पर्याय से अनित्य, गुण से अपूर्ण और व्यक्ति से अनंत यह विचार व्यवहार नय का है । यानी मेरी आत्मा द्रव्य से नित्य है । गुणों से परिपूर्ण है और जाति से एक है, यह निश्चय नय का चिंतन है और मेरी आत्मा पर्याय से अनित्य है, गुणों से अपूर्ण है और व्यक्ति से अनंत है, यह चिंतन व्यवहार नय की प्रधानतावाला है ।
निश्चय का विचार सम्यगदर्शन ज्ञान गुण को विकसित करता है । व्यवहार नय का विचार चारित्र गुण को विकसित करता है ।

निश्चय से आत्मा एक है । व्यवहार से आत्मा अनेक है । निश्चय से परिणामी और पूर्ण है । व्यवहार से आवरण सहीत है । इस कारण अपूर्ण है । इस तरह व्यवहार और निश्चय को अपने अपने स्थान पर मुख्य रखने से रत्नत्रय स्वरूप मोक्ष मार्ग की आराधना अस्खलित प्रवाह से चलती है ।

निश्चय नय से आत्मा कर्म से लिप्त नहीं नहीं है अर्थात कर्म से बंधा हुआ नहीं है, व्यवहार नय से कर्म से लिप्त है यानी ज्ञान योग्य अलिप्त दृष्टि से शुद्ध होता है और क्रिया वाला लिप्त दृष्टि से शुद्ध होता है ।

ध्यान दशा में ज्ञान की मुख्य्ता है , व्यवहार दशा में क्रिया की मुख्यता है…

Element-offering
तत्व प्रसाद
March 28, 2019
Reverence-and-knowledge
श्रद्धा और ज्ञान
March 28, 2019

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Archivers