मुंबई भिवंडी में महात्मा प्रवचन दे रहे थे।वहां से जाते हुए एक श्रावक को व्याख्यान सुनने की इच्छा हुई। एक ही प्रवचन सुनकर अपने पापमय पूर्वजीवन के प्रति अत्यंत पश्चाताप हुआ। सात व्यसनो में गले तक डूबे उस श्रावक ने सातो व्यसनो का त्याग किया! प्रभुपूजा शुरू की। जिनवाणी सुनते भाववृद्धि हुई। ४लाख रु. खर्च कर अष्टप्रकारी पूजा की संपूर्ण सामग्री सुवर्ण की तैयार की। श्रेणिक-कुमारपाल आदि की अनन्य प्रभुभक्ति सुन कर मंदिर में स्वयं हररोज एक चांदी का सिक्का रखने लगे। इसके लिए वार्षिक रू. ३६००० सद्व्यय करते थे!
सुंदर स्वस्तिक बनाने के लिए सोने के चावल के बीच हीरा लगवाया। यह सब लाख रु. में तैयार करवाया। रोज दोनों प्रतीकमण और सामायिक करने लगे। तप का भाव होने पर सहपत्नी वर्षीतप करने लगे। वर्षितप के साथ ब्रह्माचर्य जैसा कठिन व्रत शुरू कीया!!ऐसी अनेकविध आराधनाओं का यज्ञ करते करते वे विमल बुद्धि सुश्रावक ने गुरुदेव को विनती की कि तिजोरी की चाबी आपको सूप्रत कर दूँ। मेरे हित के लिए आप सूचन करें उन स्थानों में आज्ञा करें उतना लाभ लेने तैयार हूं!! अज्ञानवश संसाररक्त, पीछे दीक्षा की भावना वाले इस पुण्यशाली का पूर्ण परिवर्तन करने वाली महाप्रभावक जिनवाणी ने तो अनंत पापियों का भी उद्धार किया है!! श्रावक का महत्व का कर्तव्यभूत यह प्रवचन- श्रवण तुम भी अवश्य कर आत्महित साधो यही मंगल कामना।ऐसे भयंकर कलियुग में भी अनेकों का अनेकविध लाभ करने वाले इस व्याख्यानश्रवण का धर्म तुम नियमित या हो सके उतना करके ज्यादा से ज्यादा आत्महित करो यही शुभ शुभाशिष।