नामस्मरण और पूजा-पाठ ये भक्ति के बाह्य लक्षण है। भक्ति का अभ्यंतर लक्षण आज्ञा-पालन और सर्वसमर्पण है। ज्ञान एक साधना है, साध्य सर्वमंगल है, जिसे देव पर परम भक्ति है और गुरु पद पर भी ऐसी परम भक्ति है उसे यह पदार्थ-परमार्थ तत्त्व प्रकाशित होता है, पूर्ण रूप से समझ में आता है, ग्राह्य बनता है।
देव के ऊपर जैसी परम भक्ति, वैसी ही गुरु ऊपर जिसे होती है, उन महान आत्मा को ही पदार्थ तत्त्व अच्छी तरह ग्राह्य बनते हैं, प्रकाशित होते हैं। देवगुरु दोनों के प्रति परम भक्ति अत्यंत जरूरी है। गुरु को एक व्यक्ति रूप नहीं मानते हुए विश्व के एक परम तत्त्व रूप मानना चाहिए।
देव और गुरु के पास मुझे क्या प्राप्त करना है ऐसे विचार के बदले ‘मुझे क्या देना है’ ? यह विचार ज्यादा आने चाहिए।
लेने के विचार तो सभी करते हैं ,देने के विचार करने चाहिए। देने वाले को ही दुनिया की उत्तम चीजें भरपूर मिलती है। देने का विचार करें यानी जो कुछ मांगते हो वह सब कुछ, अवसर पर मिल जाता है।
देव-गुरु को जो देना है वह सेवा, प्रेम, भक्ति , लगन, नम्रता आदि है, उसका विचार किए बिना पाने के विचार किस तरह सफल बनेंगे ?
समर्पणभाव शिष्य का कल्याण करता है। ‘अहं’ और ‘मम’ के द्वंद्व से मुक्त करता है, साधक जीवन की निश्चितता को आकर्षित करता है, निर्भयता को प्रकट करता है।
देव और गुरु की आराधना से मुक्ति समीप आती है, अर्थात शिष्य मुक्ति के समीप पहुँचता है। शास्त्र के रहस्य उसके ह्रदय में अपने आप प्रकाशित होने लगते हैं।
देव-गुरु पर भक्ति और प्रेम का रस ऐसा तीव्र बनना चाहिए कि उनके ध्यान के रस से विषयों का रस अपने आप मंद हो जाय।
मछली की जल के साथ जैसी प्रीति होती है वैसी प्रीति देव गुरु के साथ बांधकर सर्व बंधनों से मुक्त होने की शक्ति हासिल कर सकते हैं।