देवाधिदेव जिनेश्वर प्रभु के अंग की पूजा बगॆर किसी कामना से की जाती हैं प्रभु पूजन सॆ उपसर्ग का नाश होता हैं, विघ्नो का शमन होता हैं,
और मन हमेशा प्रसन्न रहता हैं, और काहा भी हैं कि-
उपसर्गः क्षंय यान्ति छिधन्ते विध्न वल्लयः।
मनः प्रसन्नतामेती पूज्य माने जिनेश्वरेः॥
प्रभु पूजन परमात्मा कॆ गुण ग्रहण करने कॆ लिये की जाती हैं, जिनेश्वर देव की पूजन सॆ पाप कर्मो का नाश होता हैं। पूजा करने वाले ध्यान दें
पूजन हमेशा पूजा कॆ कपड़े में करनी चाहिए और भगवान के 9 अंग सिवाय
दुसरे कही पर पूजा न करें।
भगवान के लांछन या परिकर में हाथी, पुतली इत्यादि हो तो उनकी पूजा नहीं करे याने
उनको तिलक नहीं लगावे।
जिनालय में पहले मूलनायक भगवान फिर आस-पास में आरस के प्रतिमाजी, फिर पंच धातु प्रतिमाजी, फिर सिद्धचक्र जी, फिर गुरुमूर्ति की एवं अंत में सम्यग-दृष्टी शासन रक्षक देव-देवी के कपाल में दाहिने अंगूठे से तिलक करना होता है।
भगवान के एक अंग को सिर्फ एक बार ही तिलक करना होता है। ज्यादा बार करने से चन्दन के रेले उतरते है एवं भगवान को घसारा लगता है। अंग भंग की संभावना बनती है।
जो लोग दोनों हाथ से भगवान को पकड़कर माथा नवाते है या सिर लगाते है वो भी आशाताना है, इस प्रकार सिर लगाने से हमारे शरीर का मैल, तेल, बाल या पसीना भगवान को लगता है
जो पापबंध का कारण बन जाता है।
पूजन करने को तॊ सिर्फ निम्न नवअंगो के 13 स्थान की ही पूजन करना चाहिए-
1. अंगुठे पर बायें सॆ दायें,
(खड़ी प्रतिमाजी की दायें सॆ)
2. घुंटने पर दायें सॆ बायें,
3. हाथों पर दायें सॆ बायें,
4. स्कंध पर दायें सॆ बायें,
5. शिखा पर,
6. कपाल पर,
7. कंठ पर,
8. ह्रदय पर,
9. नाभि पर।
जिनेश्वर देव की नवअंग पूजा करतॆ समय हमॆं नवअंग की पूजा कॆ महत्व तथा उसके लाभ कॊ दर्शाने वाले दोहे बोलना चाहिए, अगर दोहे याद नहीं हो तो उन्हे सीख लेना चाहिए इससे आप के पूजन कॆ प्रति भावों में वृध्दि होने कॆ साथ ही आपको उसके लाभ का भी ज्ञान हो जायेगा। किसी भी बात का ज्ञान होने कॆ बाद उसके करने न करने सॆ होने वाले लाभ-हानि कॊ व्यक्ति कॊ बतला दिया जाये तॊ वह अपने स्वविवेक सॆ उसको करने कॆ लिये तयार हॊ जाता हैं।
पूजन करते समय बोले जाने वाले दोहे-
1. अंगुठ पर-
जल भरी संपुट पात्रमां, युगलिक नर पुजंत ।
ऋषभ चरण अगुठडे, दायक भवजल अंत ॥१ ॥
2. घुटने पर :-
जानूबले काउस्सग रह्या , विचर्या देश ~ विदेश।
खडा ~ खडां केवल लह्यु , पूजो जानु नरेश ॥२ ॥
3. हाथो पर :-
लोकान्तिक बचने करी, वरस्यां वरसी दान।
करकांडे प्रभु पूजना , पुजो भवी बहुमान ॥३ ॥
4. स्कंध पर :-
मान गयुं दोय अंश थी , देखी वीर्य अनंत ।
भुजा बले भवजल तर्या , पुजो खंध तहंत ॥४ ॥
5. शिखा पर :-
सिद्धशिला गुण उजले , लोकान्ते भगवंत ।
वसिया तरसे कारण भवि , शिर शिखा पूजंत ॥ ५ ॥
6. कपाल पर :-
तीर्थंकर पद पुण्य थीं , त्रिभुवन जन सेवंत ।
त्रिभुवन तिलक समा प्रभु , भावतिलक जयवंत ॥ ६ ॥
7. कंठ पर :-
सोल पहोर प्रभु देशना , कंठे विवर वरतुल।
मधुर ध्वनि सुरनर सुने , तिणे गले तिलक अमूल ॥ ७ ॥
8. ह्रदय पर :-
ह्रदयकमल उपशम बले , बाल्या राग ने रोष ।
हिम दहे वनखंड ने , ह्रदय तिलक संतोष ॥ ८ ॥
9. नाभि पर :-
रत्नत्रयी गुण उजली, सकल सुगुण विश्राम।
नाभिकमलनी पूजना, करता अविचल धाम ॥ ९ ॥
हॆ प्रभु! आप नवतत्वों का ज्ञान दॆनॆ वाले परम क्रपालु हैं नवतत्वो कॆ ज्ञान रुप आपके नवअंग की पूजन कर मैं भी अपने जीवन को सफल बनाऊ यही अभिलाषा हैं।
पूजन कॆ बाद प्रभु की अक्षत पूजा करना-
अक्षत पूजा करते समय बोले जाने वाला दोहा-
अक्षत पूजा करता थका, सफल करू अवतार।
फल मांगू प्रभु आगले, तार तार मुंझ तार॥
सांसारिक फल मांगिने, रझ्डयो बहु संसार।
अष्ट कर्म निवारवा , मांगू मोक्ष फल सार ॥
चिंहु गति भ्रमण संसार मा, जन्म मरण जंजाल।
पंचमी गति विण जिवने, सूख नही त्रिहु काल॥
स्वस्तिक के उपर की 3 ढगली और उसके उपर की सिद्धशिला बनाते समय बोलने वाला दोहा-
दर्शन ज्ञान चारित्र ना, आराधन थी सार।
सिद्धशिला नी उपरे, हो मुझ वास श्रीकार।।