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शरीर और आत्मा का सम्बन्ध

शरीर और आत्मा का सम्बन्ध संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से व्यंजन और स्वर के संबंध जैसा है ।

मूल अक्षरों में अ – आ आदि स्वर है और क – ख आदि व्यंजन है , स्वयं राजन्ते आईटीआई स्वराः जिसका उच्चारण हमेशा अपने आप से होता है उसे स्वर कहते है । स्वर की सहाय मिलने पर ही जिसका पूर्ण उच्चारण होता है उसे व्यंजन कहते है । स्वर के बिना पूरी तरह बोला भी नही जा सकता एवं लिखने में भी आधा लिखा जाता है स्वर आत्मा और व्यंजन शरीर है । स्वर का उच्चारण शास्वत है उसी प्रकार शरीर रूप व्यंजन में रही हुई आत्मा अविनाशी एवं शाश्वत है । व्यंजन की तरह शरीर अनित्य , विनाशी , पराधिन और अशाश्वत है ।

उत्कृष्ट से उत्क्रष्ट कर्म की स्थिति मोहनीय कर्म की है और वह 70 कोटि कोटि सग्रोपम जितनी दीर्घ है । दूसरी और मनुष्य के आयुष्य की वर्तमान स्थिति 100 -125 वर्ष की है । बाह्य द्रष्टि से देखा जाये तो मोहनीय कर्म की इतनी दीर्घ की स्थिति 100 -125 वर्ष जितने अल्प आयुष्य में किस प्रकार दूर की जा सकती है ? अंतदृष्टि से देखा जाये तो आत्मा की स्थिति अनंत कोटि सग्रोपम से भी अधिक है उसके आगे 70 कोटा कोटि सग्रोपम क्या है ? कुछ नही । अरबो रुपयों के आगे एक पैसा भी नही । 70 कोटा कोटि का अंत हो सकता है परंतु आत्मा अनंत है । उसका कोई अंत नही । मोहनीय कर्म से लेकर सभी कर्मो का अंत आ सकता है किंतु आत्मा का अंत कभी नही ।जिस प्रकार बाह्य वस्तु , पदार्थ का दर्शन सूर्य का प्रकाश होने पर भी आँख खुली बिना नही हो सकता उसी प्रकार भीतर रही हुई महान वस्तु का दर्शन भी अंतः चक्षु , विवेक चक्षु , विचार चक्षु खुले बिना नही हो सकता । बाह्य वस्तु जगत है । अभ्यंतर वस्तु आत्मा है ।

आत्मा चैतन्य रूप है – ज्ञानरूप है । जिस प्रकार दीपक को देखने के लिए अन्य दीपक की जरुरत नही रहती , उसी दीपक के प्रकाश में वह स्वयं भी दीखता है , उसी प्रकार आत्मा को देखने के लिए अन्य ज्ञान के प्रकाश की जरुरत नही रहती परन्तु भीतर रहा हुआ ज्ञानप्रकाश जिसमे से प्रकाश बह रहा है , वह आत्मा को भी देख सकता है ।

इस प्रकार आत्मा अविनाशी , महान में भी महान , बलवान में भी बलवान सभी ज्ञानो में शिरोमणि और असीम सुलह से परिपूर्ण है ।

आत्मा के संपूर्ण विकास हेतु जैन धर्म द्वारा दो मुख्य साधन मने गये है : ज्ञान और क्रिया । आत्मा के विकास के लिए इन दोनों साधनों का होना आवश्यक है । ज्ञान बिना क्रिया और क्रिया बिना ज्ञान मनुष्य को आत्म विकास के शिखर पर पहुँचा नही सकते । दोनों के संयोग से ही आत्मा का पूर्ण विकास शक्य है ।

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