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आत्मरसिकता

आत्मा देह में रही हुई है फिर भी निर्विकल्प समाधि रूप तप के बिना अच्छे बड़े महात्मा भी उसे समझ न सके , अनुभव कर न सके।

पर्याय की अपेक्षा आत्मा में उत्पत्ति और नाश ही घटित होता है और मूल द्रव्यों की अपेक्षा से, अजरत्व , अमरत्व और नित्यत्व घटित होता है।

आत्मा व्यवहार से ज्ञेय(पदार्थो) को जानती है और परमार्थ से स्वयं स्वरूप में रहती है।

प्रदेशार्थ नय से आत्मा देहव्यापी है, ज्ञानार्थ नय से आत्मा विश्वव्यापी है। पर- ज्ञेय पदार्थो को तन्मय होकर जानती नही, परंतु स्वयं को तन्मय रूप से अनुभव करती है। पर -प्रकाशता सहज उपचरित है और स्व प्रकाशता निरूपचरित है। अन्य के द्वारा कराय गए -राग द्वेष और सुख दू:खादी को वह जानती है लेकिन उनमें तन्मय नही होती।

सत्व वगैरह गुणों से नाशरूप शून्यता आत्मा में है , ज्ञातृत्व , दृष्टत्व रूप गुणों से आत्मा में पूर्णता है। शुद्ध आत्मबोध की परिणति के अभाव में जीव कर्म को बांधती है।इष्ट -अनिष्ट , अच्छे -बुरे विषयो में राग -द्वेष शोकादी करती है।

शुद्ध आत्मा ही प्राप्त करने जैसी है, ऐसी रूचि सम्यग्दर्शन है।

पर द्रव्य ग्रहण करने संबन्धी सभी इच्छाओं का त्याग वह तप है। कर्मो को तपाना , नीरस करना और आत्मा से अलग कर देना वह तप है।

द्वादशांगी रूप सभी आगमो का ज्ञान प्राप्त करने पर भी उसके सारभूत ऐसे परमात्म ध्यान में रहने की जरूरत है। परमात्म ध्यान द्वारा शुद्ध आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव होता है। ज्ञान प्राप्त कर अनुभूति करना यही ज्ञान की सार्थकता है। जिसप्रकार पाकशास्त्र के ज्ञान मात्र से पेट नही भरता परंतु भोजन करने से ही पेट भरता है, उसी प्रकार आगम स्वरूप शास्त्र के ज्ञान मात्र से नही परंतु उसके द्वारा होने वाली आत्मा के शुद्ध स्वरूप की अनुभूति से ही आत्मा शुद्ध बनती है।

तीन गुप्तियों की जिसमे मुख्यता है ऐसी निर्विकल्प – वीतराग समाधि ही केवलज्ञान की बिज है। आत्मध्यान से आत्मस्वरूप की अनुभूति होती है और विश्व का स्वरूप भी जाना जा सकता है ।

वीतराग भाव वाली निर्विकल्प समाधि मोह रूप बादलो को बिखेर देती है। अग्नि की एक छोटी सी चिनगारी पर्वत जैसे लकड़ो के ढेर का विनाश करती है, उसी प्रकार परमात्मा के शुद्ध स्वरूप में, एक निमेष जितने समय भी एकरस बन जाए , तो पर्वत जितने पाप के ढेर को जलाकर राख कर देती है। शुद्ध आत्मध्यान का यह सामर्थ्य है इसलिए शुद्ध आत्मस्वरूप में स्थिर रहना चाहिए। ऐसे त्यागी को आत्मा का अनुभव होता है।

आत्मा, आत्मा को , आत्मा द्वारा, आत्मा के लिए , आत्मा से, आत्मा में रही हुई है ऐसा सम्यग् बोध होने पर ही परम स्वरूप की प्राप्ति हो सकती है।

समभाव में परिणत मन-मंदिर में आत्मदेव स्थिरता करते है । शत्रु- मित्र , सुख -दुःख, निंदा -प्रशंसा , जीवन -मरण , हर्ष -शोक , राग-द्वेष इत्यादि प्रसंगों में या ऐसे निमित्त मिलने पर भी जिसका मन राग द्वेष से रहित हो वह समचित्त वाला कहलाता है। समभाव से युक्त चित्तवाला साधक पांचो इंद्रियों के विषयों एवं मन संबंधी विकल्पों रूप जालों का निरोध कर, वीतराग – निर्विकल्प , स्वसंवेदन- आत्मसंवेदन ज्ञान में लीन बनकर रहता है, उसे विशेष प्रकार के आत्मिक सुख का अनुभव होता है। यह सुख स्वयं (आत्मा) को (स्वयं) आत्मा से अनुभव होने से स्वसंवेघ कहलाता है। उसमें दुसरो की कोई सहाय या दूसरी किसी वस्तु की अपेक्षा नही होती इसलिए आंनद के समूह आनन्दघन ऐसी आत्मा में मग्न होने में ही मनुष्य जन्म की सार्थकता है।

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