बस दूसरे ही दिन बाल व्रज के न्याय को पाने के लिए सुनंदा अपनी सखियों के साथ बालक के योग्य खिलौने व भोजन सामग्री लेकर राज सभा में उपस्थित हो गई। धनगिरी मुनि भी दूसरे दिन अपने साथी मुनियों के साथ वहां उपस्थित हो गए।
दोनों पक्ष आमने-सामने बैठ गए। न्याय के लिए राजा भी बीच में बैठ गया।
ठीक समय पर राजा ने न्याय करते हुए कहा, इस बाल वज्र को सभा के बीच में उपस्थित किया जाए………. वह जिस ओर जाना चाहे, उस ओर जा सकेगा।
उसी समय सुनंदा ने कहा, ‘यह बालक इन साधु के साथ लंबे समय से परिचित है, अतः इसे पहले मैं बुलाऊंगी।’
राजा ने इस बात मैं अपनी सम्मति प्रदान की। राजा की ओर से सम्मति मिलते ही सुनंदा अपने पुत्र को आकर्षित करने के लिए मिठाई और खिलौने आदि बतलाने लगी…….. परंतु वह व्रज बाल उन खिलौनों तथा खाने-पीने की सामग्रियों से लेश भी नहीं ललचाया।
सुनंदा ने कहा, ‘बेटा! तू मेरे पास आजा। तेरे पिता तो दीक्षा लेकर मुझे छोड़कर चले गए हैं. . . . . . अब तो तूं ही मेरे लिए आधार-स्तंभ है। बेटा! तेरे बिना भविष्य में मेरा कौन सहारा है? मैंने तुझे 9 मास तक गर्भ में वहन किया है, अतः तूं मेरे पास आकर अपने ऋण के भार में से मुक्त बन! में तेरे लिए खाने-पीने-खेलने की खूब सामग्री लेकर आई हूं।
माता के आग्रह भरे इन वचनों को सुनकर बाल वज्र सोचने लगा, अहो! लोक में माता-पिता को तीर्थरूप कहा गया है, यह बात सत्य है, किंतु वह तो इसी लोक में सुख देने वाले हैं। परंतु गुरु और संघ तो परलोक में भी सुखदायी है…….. और यह संघ तो तीर्थंकरो के लिए भी आदर पात्र हैं….. अतः संघ की आराधना में मां की आराधना का समावेश हो ही जाता है…….. भूतकाल में संसार में भटकती हुई आत्मा की अनंत माताएँ हो चुकी है। इस आत्मा ने समुद्र के जल से भी अधिक मां का दूध पिया है…… यह संघ तो मोक्ष सुख प्रदान करने वाला है। अतः उसकी आराधना करूंगा तो अल्पभवो में ही मेरी आत्मा का कल्याण हो सकेगा- इस प्रकार विचार कर बाल वज्र अपने स्थान पर ऐसे ही खड़ा रहा।