इस प्रकार विचार करते हुए वज्रस्वामी ने अपनी लब्धि के बल से चक्रवर्ती के चर्मरत्न की भांति एक लंबा पट्ट बिछाया और उस पर पूरे संघ को उठाकर आकाशगामिनी विद्या के बल से आकाश में उड़ने लगे। इस बीच कोई शय्यातर किसी काम के लिए अन्यत्र गया हुआ था। वापस लौटते समय वज्रस्वामी को संघ के साथ उड़ते देखकर वह बोला, हे प्रभो! मैं आपका शय्यातर था……. अभी हम साधर्मिक है तो मुझे ऐसा स्थान में अकेले छोड़कर क्यों जाते हो?
इस प्रकार शय्यातर की इस बात को वज्रस्वामी ने सूत्राथ का स्मरण किया……जो साधार्मिक, स्वाध्याय, चरित्र व धर्म की प्रभावना में तत्पर हो उन्हें मुनि अवश्य तारे।
आगम के इस पाठ को याद कर वज्रस्वामी ने श्रावक को भी अपने विद्या पट्ट में ले लिया। उसके बाद वज्रस्वामी सकलसंघ के साथ सुकाल प्रदेश की ओर आगे बढ़ने लगे।
उस पट्ट को लेकर वज्रस्वामी महापुर नगर में पधारे- जहा सुकाल होने से संघ के सभी सदस्य सुखी बने
शाशन प्रभावना
महापुर नगर का राजा और वहां की प्रजा बौद्धधर्मी थी। इस कारण जैन और बौद्धों के बीच परस्पर वाद होता रहता। इस प्रकार जब पर्युषण महापर्व आए, तब प्रजाजनों ने जाकर राजा को निवेदन करते हुए कहा, हे राजन! जैनों का वार्षिक पर्व आया हुआ है, अतः माली लोगों के पास से सभी फूल अपने मंदिर में मंगवा दे। जैनों को फूल नहीं मिलने से उनका अभिमान दूर हो जाएगा।
प्रजाजनों की इस बात को सुनकर राजा ने मालियों को यह आज्ञा कर दी। परिणाम स्वरुप जैनों को प्रभु भक्ति के लिए कुछ भी फुल नहीं मिल पाए।
लोगों ने जाकर वज्रस्वामी को बात करते हुए कहा, तीर्थ कि उन्नति के लिए साधु भी हमेशा प्रयत्नशील होते हैं, अतः आपको भी शासन की उन्नति के लिए कुछ प्रयत्न करना चाहिए।