पांचाल कवि का मकान जिस राजमार्ग पर था…….. उस मार्ग पर श्मशान-यात्रा का आगमन हो रहा था। “जय जय नंदा….. जय जय भद्दा” के नाद से आकाश मंडल गूंज रहा था।
गवाक्ष में बैठे पांचाल कवि ने दूर से आ रही उस श्मशान यात्रा को देखा…… वह तुरंत नीचे आ गया। उसने किसी व्यक्ति से पूछा, “यह श्मशान-यात्रा किसकी निकल रही है।” उस व्यक्ति ने कहा, “प्रचंड प्रतिभाशाली जैन आचार्य श्री पादलिप्त सूरीश्वरजी म. की यह श्मशान यात्रा है।”
पांचाल कवि ने आश्चर्य से पूछा, “क्या उनका स्वर्गवास हो गया?”
हाँ! कल ही उनका स्वर्गवास हो गया है।
“यह सुनते ही पांचाल कवि को अत्यंत ही आघात लगा।” वह सोचने लगा आचार्य श्री का वास्तविक हत्यारा तो मैं ही हूं……. मैंने उनको कलंकित किया है…. अहो! में कितना पापी हूं। एक तुच्छ स्वार्थ के लिए मैंने ऋषि की हत्या कर दी?
पांचाल कवि का ह्रदय पश्चाताप से भर आया। उसने देखा- आचार्यश्री की श्मशान यात्रा निकट आ रही है ……तो क्यों नहीं, उनके अंतिम दर्शन कर अपनी आत्मा को पावन करूं……… उसने अपने पाप की क्षमा याचना करु। इतना सोचकर वह उस राज-मार्ग पर आ गया।
पालकी आगे बढ़ रही थी, उसने उस पालकी को रुकवाया और आचार्यश्री को अष्टांग प्रणिपात कर बोला, अहो! अहो! महासिद्धि के पात्र ऐसे आचार्य स्वर्ग में चले गए।
पश्चाताप करते हुए वह बोला
सीसं कह वि न फुट्टं, जमस्स पालित्तयं हरंतस्स।
जस्स मुह निज्झराओ, तरंगलोला नई वूढा।।
अर्थात्- पादलिप्त सूरी म. का हरण करते हुए यमराज का मस्तक फूट क्यों नहीं गया, जिनके मुख रूपी झरने से ‘तरंगोंलोला’ नाम की नदी प्रगट हुई।
इस प्रकार ज्यो ही पांचाल कवि ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि ‘तरंगलोला’ के कर्त्ता तो पादलिप्त सूरी म. ही है, त्यों ही पालकी में विराजमान आचार्य देव पादलिप्त सूरिजी म. “पांचाल कवि के सत्यवचन से मैं जीवित हुआ हूं।” इस प्रकार कहते हुए पालकी से कूद पड़े।
आचार्य श्री के जीवंत जानकर चारो और आनंद की लहर फैल गई। यह समाचार राजा को भी मिले।
राजा को पांचाल कवि पर अत्यंत गुस्सा आया। और उन्होंने आज्ञा फरमाकर पांचाल कवि को देशनिकाले की सजा दी और पूज्यपाद आचार्य पादलिप्त सूरिजी म. का पुनः नगर में भव्य प्रवेश हुआ। श्मशान-यात्रा शोभा-यात्रा में बदल गई। चारों ओर जो पहले जैनधर्म की निंदा हो रही थी, उसके बाद जैनशासन की प्रशंसा होने लगी। आचार्यश्री पादलिप्त सूरिजी म. ने ‘निर्वाणकलिका’ नामक ग्रंथ और ‘प्रश्नप्रकाश’ नामक ज्योतिःशास्त्र का भी रचना की थी।
स्वर्गगमन- आचार्यश्री अपने मृत्युकाल को निकट जानकर शत्रुंजय महातीर्थ पधारे। वहाँ अनशन स्वीकार कर समाधिपूर्वक उन्होंने अपने देह का त्याग किया।
भक्त नागार्जुन ने पादलिप्त सुरिजी के नाम के अनुरूप पालिताना नगर बसाया। वह नगर आज भी पादलिप्त सूरिजी म. की याद दिलाता है।