राजन्! यही आप भूल कर रहे हैं। जब आत्मप्रसिद्धि की आकांक्षा अत्यंत बढ़ जाती है, तब व्यक्ति अन्य की कृति पर भी अपना स्वामित्व कर लेता है और इस प्रकार माया कर अपनी प्रसिद्धि फैलाता है। आपको पता नहीं है, “तरंगलोला” के कर्ता तो हमारे विद्वान पूर्वज ही है।
“कविराज! क्या ऐसी बात है? क्या इस बात का कोई प्रमाण है?”
“हाँ! हाँ! राजन! प्रमाण के बिना तो मेरी बात तो माने भी कोंन? यह देखिये। हमारे पूर्वजों की इस महान कृति को!” कविराज ने वह प्रति दिखा दी।
राजा ने उस कृति को ऊपर-ऊपर से देख लिया और कवि के वचनों पर विश्वास कर बोला, अहो! इतने धूर्त है ये जैनाचार्य! में तो उन्हें महान समझता था।
आचार्य भगवंत के प्रति महाराजा के ह्रदय में जो सद्भाव था, वह सद्भाव लुप्त हो गया और उसका स्थान तिरस्कार ने ले लिया।
अपने नियमित कार्यक्रमानुसार दूसरे दिन जब आचार्य भगवंत राजसभा में पधारें तब राजा ने अपना मुंह मोड़ लिया था। समझदार के लिए इशारा काफी होता है, इस युक्ति के अनुसार आचार्य भगवंत ने सोचा, अवश्य ही दाल में कुछ काला होना चाहिए, अन्यथा प्रतिदिन सम्मान करने वाला राजा, मेंरे आगमन के साथ अपना मुंह क्यों मोड़ लेता?
राजा के इस अनादर को देखकर आचार्य भगवंत एक क्षण का भी विलंब किए बिना उपाश्रय में लौट आए।
थोड़ी ही देर में पवनगति से यह बात नगर में फैल गई की जैनआचार्य ने पांचाल कवि के पूर्वजों की कृति चुराकर अपने नाम की प्रसिद्धि की है।
जैन मुनि तो मान और अपमान को समान गिनते हैं। आचार्य भगवान को अपमान की कोई परवाह नहीं थी, किंतु एक जैनआचार्य पर कलंक यह जिनशासन का कलंक है। पादलिप्त सूरीजी म. ने सोचा ‘जब तक यह कलंक दूर नहीं किया जाएगा, तब तक जैनशासन की अप्रभावना होगी, अतः मुझे किसी भी प्रकार से इस कलंक को दूर करने के लिए अवश्य प्रयत्न करना चाहिए’ इस प्रकार मन ही मन सोचकर आचार्य भगवंत कलंक निवारण का उपाय सोचने लगे।
सूक्ष्म बुद्धि के निधान आचार्य भगवंत को एक क्षण में उपाय सूज गया। उन्होंने श्रावक वर्ग में से कुछ गंभीर और प्रौढ़ श्रावको को बुलाया और एकांत में ले जाकर उनसे कहा, तरंगलोला काव्य की रचना मैंने ही की है, फिर भी मुझ पर यह जो यह कलंक आया है, उसके निवारण के लिए मुझे एक उपाय सूझा है, उस उपाय को तुम्हें गुप्त रखना होगा और उनके लिए आपको बहुत कुछ त्याग करना पड़ेगा। क्या आप इसके लिए तैयार हो?