स्थूलभद्र महामुनि के ब्रह्मचर्य की कैसी यह अपूर्व साधना।
काम के घर में रहकर भी उन्होंने काम का नाश कर दिया। एक कोशा वेश्या को भी उन्होंने उच्चकोटि की श्राविका बना दी।
वर्षाकाल व्यतीत हुआ……. और संभूति विजय आचार्य भगवंत के सभी शिष्य चातुर्मास पूर्ण कर अपने गुरुदेव के चरणों में उपस्थित होने लगे।
सर्वप्रथम सिंह गुफा के पास खड़े रहकर चार मास के उपवास पूर्वक कायोत्सर्ग की साधना करने वाले मुनि गुरुदेव के चरणों में उपस्थित हुए ।
मुनिवर को देखकर गुरुदेव ने कहा, ‘वत्स! तुम्हारा स्वागत हो, तुम दुष्कर कारक हो।
तत्पश्चात् सर्प के बिल के पास और कुँए की दीवाल पर चातुर्मास करने वाले मुनियो का भी गुरुदेव ने इसी प्रकार स्वागत किया।
इन तीनो मुनियो के आगमन के बाद स्थूलभद्र महामुनि पधारे। उनके आगमन के साथ ही गुरुदेव अपने आसन पर खड़े हो गए और बोले, ‘दुष्कर दुष्कर दुष्करकारक! मुनिवर! तुम्हारा स्वागत हो!’
गुरुदेव ने स्थूलभद्र महामुनि का जब सविशेष स्वागत किया तो यह बात उन तीन मुनियो को पसंद नही आई। वे तीनों मुनि परस्पर बातचीत करने लगे की हमने तो कठोर साधना और तपश्चर्याएँ की है, जब की स्थूलभद्र ने तो कुछ भी तप नही किया है। वेश्या के महल में रहते हुए उसने न तो ठंडी सहन की और न ही गर्मी। वहाँ रहते हुए उसने कुछ भी तप नही किया, फिर भी आश्चर्य है कि गुरुदेव हमसे भी अधिक उनकी प्रशंसा करते है। हाँ! वे मंत्री पुत्र है, इसीलिए उनकी गुरुदेव प्रशंसा करते हैं।
वे तीनो मुनि ईर्ष्याग्रस्त होने के कारण इस बात को भूल गए की कठोर जीवन जीना तो सरल है, किन्तु काम को जितना अत्यंत ही कठिन है।
इस प्रकार मन में ईर्ष्याग्रस्त बने हुए उन मुनियो ने आठ मास का समय प्रसार किया……. और जब वर्षा काल आया तब सिंहगुफावासी मुनि ने गुरुदेव को कहा, ‘ भगवन्! में नित्य षडरस का भोजन करते हुए कोशा वेश्या के वहाँ चातुर्मास व्यतीत करना चाहता हूँ।