ईर्ष्या की आग
गुरुदेव के चरणों में बैठकर जिन वचन का अमृत पान करने वाले स्थूलभद्र मुनि पौद्गालिक पदार्थों में जलकमलवत् अनासक्त योगी बन चुके थे । गुरुदेव के शुभ – आशिर्वाद प्राप्त कर स्थूलभद्र महामुनि चातुर्मास के लिए कोशावेश्या के भवन की और क्रमशः आगे बढ़ने लगे ।
उनकी चाल में ईर्यासमिति के दर्शन होते थे . . . उनके मुखमंडल पर ब्रह्मचर्य का अपूर्व तेज था।
कोशा वेश्या के द्वार पर पहुँचने के साथ ही स्थूलभद्र मुनिवर ने जोर से `धर्मलाभ’ कहा।
`धर्मलाभ’ की मधुर ध्वनि के स्वर जैसे ही कोशा वेश्या के कान में गिरे, वह एकदम चौंक उठी। वह तत्काल अपनें भवन के द्वार पर आ गई ।
उसने जैसे ही प्रशांत मुख मुद्रा वाले स्थूलभद्र मुनिवर को देखा , उसने आश्चर्य का पार न रहा ।
जिनके आगमन की वह प्रतिपल प्रतीक्षा कर रही थी , परन्तु जिसे स्वप्न में भी स्थूलभद्र के आगमन की कल्पना नहीं थी . . . ऐसे स्थूलभद्र मुनिवर को अपनी आंखों के सामने प्रत्यक्ष देखकर वह विचारों में खो गई।
इस प्रकार मनोमन विचार कर कोशा वेश्या ने कहा , `स्वामिन्! पधारो! पधारो! सुस्वागतम्! आपके आगमन से मैं धन्य बन गई हूँ। आप मुझे आज्ञा फरमाइए । मेरा देह , मेरा धन , मेरे नौकर – चाकर ये सब आपको पूर्ण रूप से समर्पित है।
स्थूलभद्र मुनिवर ने कहा , `यहाँ चातुर्मास व्यतित करने के लिए आया हूँ। अतः मुझे रहने के लिये स्थान चाहिये। तुम मुझे अपनी चित्रशाला प्रदान कर सकोगी?’
तत्काल कोशा वेश्या ने स्थूलभद्र मुनिवर को चित्रशाला प्रदान कर दी । चित्रशाला की दीवारों पर काम वासना को उत्तेजित करने वाले विविध कामासन चित्रित थे, जिन्हें देखकर मन में सुषुप्त अवस्था में रही काम वासना उत्तेजित हुए बिना नहीं रह पाती। `समुद्र के जल में रहना और मगर से वैर रखना’ – की तरह काम वासना को उत्तेजित करने वाले वातावरण के बीच रहना और काम से अलिप्त रहना – अत्यंत ही दुष्कर साधना है . . . परन्तु स्थूलभद्र महामुनिवर ने वह साधना भी सुकर करके बतला दी।
स्थूलभद्र मुनिवर ने चित्रशाला में प्रवेश किया । तत्पश्चात् भोजन के समय पर वह वेश्या स्थूलभद्र मुनिवर को षड्रस से युक्त भोजन बहोराने लगी।