रत्नत्रयी की निर्मल आराधना के द्वारा उन्होंने अपने ह्रदय को स्फटिक की भांति एकदम स्वच्छ बना दिया । उनकी आँखों निर्विकार बन चुकी थी । उनके मन में स्त्री या स्त्री देह के सौंदर्य का लेश भी आकर्षण नही था। संयम की साधना के फलस्वरूप अब उनके मन में स्त्री का देह एक मात्र हाड़ मांस की पुतली ही रह चूका था।
गुरुदेव के चरणों की उपासना द्वारा उन्होंने सम्यग् ज्ञान प्राप्त किया …..
परिणाम स्वरूप वे शास्त्र के रहस्य भूत पदार्थो को अपने जीवन में आत्मसात करने में समर्थ बन सके।
धीरे धीरे समय बीतने लगा।
चातुर्मास का समय निकट आया और संभूति विजय आचार्य भगवंत के शिष्य कठोर तप साधना और भयंकर परीषहों को सहन कर अलग अलग जगह पर चातुर्मास करने के लिए अपने गुरुदेव के पास अनुज्ञा मांगने लगे।
एक मुनिवर ने कहा , हे गुरुदेव ! में सिंह की गुफा के पास कायोत्सर्ग में खड़ा रहकर चातुर्मास व्यतीत करना चाहती हूँ।
गुरुदेव ने अप इस प्रकार उसकी योग्यता जानकर गुरुदेव ने कहा, ‘तथास्तु!वत्स! मेरी तुझे अनुमति है। तुम अपनी भावना को पूर्ण कर सकोगे।’
उसके बाद एक मुनिवर ने कहा , हे भगवंत! मैं दृष्टिविष सर्प के बिल के पास चार महिने उपवास करके कायोत्सर्ग में खड़ा रहना चाहता हूँ। प्रभो! इसके लिए आप मुझ पर अनुग्रह कर अनुमति प्रदान करने की कृपा करें।
गुरुदेव ने उस मुनिवर के दृढ़ मनोबल और सत्त्व को देखा और कहा, मुनिवर! मेरी तुम्हे अनुमति है। इस प्रकार के कठोर परिषह को सहन करने की तुम्हारी मनोकामना अत्यंत ही अनुमोदनिय है।
तत्पश्चात् एक मुनिवर ने कहा, ‘हे भगवंत! आप मुझे अनुग्रह करे; मैं कुँए की दीवाल पर खड़े रहकर चार महिने उपवास एवं कायोत्सर्ग की साधना द्वारा चातुर्मास व्यतीत करना चाहता हूँ। ‘
गुरुदेव ने उसकी मन की स्थिरता देखकर उसे भी सम्मति प्रदान कर दी ।
तत्पश्चात् स्थूलभद्र मुनि ने कहा; मैं कोशा वेश्या के वहां जो काम के आसनों से चित्रित चित्रशाला है; उस चित्रशाला में कुछ तप किए बिना षडरस भोजन कर चार मास व्यतीत करना चाहता हूँ। है गुरुदेव! मेरे इस अभिग्रह को पूर्ण करने के लिए आप मुझे अनुमति प्रदान करे।
स्थूलभद्र मुनिवर की इस प्राथना को सुनकर गुरुदेव ने अपने ज्ञान का उपयोग लगाया और देखा की काम के गृह में रहकर काम विजेता बनने वाला एक मात्र यह स्थूलभद्र ही है; इस प्रकार स्थूलभद्र मुनिवर की योग्यता जानकर गुरुदेव ने उन्हें कोशा वेश्या के वहा चातुर्मास रहने के लिए अनुमति प्रदान कर दी।
बस, गुरुदेव की आज्ञा होते ही वे सभी मुनि चातुर्मास काल निकट आने के साथ ही अपनी अपनी दिशा की और आगे बढ़ने लगे।